इक रात आई बलखा के
इक रात आई बलखा के
डूबी थी किन्ही ख़यालों में मैं,
कुछ प्रश्न आए इठलाके,
क्यों नहीं रौशनी की चंद किरणें भी
इस जीवन में मेरे ॽॽ
क्या बताना चाह रहे ये पल सारे ॽॽ
एकाएक मुट्ठी भर चांदनी आ गई शर्माते
इक रात आई बलखा के ।
सवेरा तो न आया किन्तु उजाला तो आया ,
सोच रही थी मैं काश हर को मिल पाता ये एहसास
तो वो फूले न समाते ,
तभी गिरा एक टूटता सितारा थोड़ा जगमगा के
इक रात आई बलखा के ।
अतीत का साया उदासी बना बैठा था
जकड़ रहा था अपनी छाया में मुझे ज़रा घुर्रा के,
एक चमक से छूट गया जकड़ना उसका
तेज उस चमक से बंद आँखों को खोला तो मुक्त थी मैं
हुआ आभास की मां के वर्तमान में जीने सीख
याद आई थी थोड़ा मुस्काते
इक रात आई बलखा के ।
वो मुट्ठी भर चांदनी कह रही है कहानी अपनी
की कैसे उजागर किया उसने अपना अस्तित्व
कैसै है वो आज इस तरह
नकारात्मकता और निराशा को हरा के
इक रात आई बलखा के ।
सवेरे को तो भूल ही गई थी मैं
क्योंकि बैठी थी चांदनी साथ मेरे
बातों बातों में यूं ही मुस्काते ,
उसी वक्त गुदगुदी हुई पैरों में मेरे
देखा तो वो टूटे हुए सितारे का टुकड़ा
दे रहा था सवेरा आने का संदेशा
यूं ही मुझे थोड़ा हंसा के
इक रात आई बलखा के।
हाए वो रात
कैसी रात थी वो
आज सवेरे में भी याद आती है उसकी इठलाते
आँखों में आँसू होठों पे मुस्कान
लिए आई वो याद मधुर धुन गुनगुनाते
इक रात आई बलखा के।
