तू कब जिंदगी
तू कब जिंदगी
तेरे इशारों पर बहुत नाच चुका हूँ,
और कितना तू नचाएगी जिंदगी?
ना जाने कितने इम्तहान दे चुका हूँ?
और कितने इम्तहान तू दिलायेगी ज़िंदगी?
बहुत तन्हा हूँ उसके बिन,
और कितनी तन्हाई तू दिखाएगी ज़िंदगी?
रोया हूँ उसकी यादों में टूट कर,
और कितना तूं रुलाएगी ज़िंदगी?
ख़्वाहिश थी उससे बस एक बार मिलने की,
उससे दोबारा कब मुझे तू मिलाएगी जिंदगी?
थक गया हूँ यूं तन्हा दौड़ते-दौड़ते,
और कितना तन्हा तू दौड़ाएगी ज़िंदगी?
मेरे मुकद्दर में नहीं है वो,
इस बात को तू कब झुठलायेगी ज़िंदगी?
मैं तो सही हूँ अपनी जगह,
ये आईना उसको कब तू दिखाएगी ज़िंदगी?
चाहा है उसको टूट कर,
मेरी चाहत से उसको कब रूबरू तू कराएगी ज़िंदगी?
सोया नहीं हूँ ना जाने कितनी रातों से,
मुझे चैन से कब तू सुलाएगी ज़िंदगी?
उस पार मिलना है उस से,
इस पार उससे कब तू मिलाएगी ज़िंदगी?
सुकून से ज़िंदगी जीना चाहता हूँ मैं भी,
ये सुकून मुझे कब तू दिलाएगी ज़िंदगी?
खड़ा हूँ आज भी उसी के इंतज़ार में,
ये उसको कब तू बताएगी ज़िंदगी?
नहीं लगता अब ये दिल उनके बिन,
ये उसको कब तू समझाएगी ज़िंदगी?
दिल के आशियाने उजड़ चुके हैं,
इन उजड़े आशियानों को कब तू बसायेगी ज़िंदगी?
चले थे कुछ परिंदे साथ-साथ, जो अब बिछड़ चुके हैं,
इन बिछड़े परिंदों को कब तू मिलवाएगी ज़िंदगी?
टूटता हूँ मैं हर रोज़ उसकी चाह में,
इस चाह को कब उसकी आह तू बनाएगी ज़िंदगी?
दरिया की तरह बह चुका हूँ बहुत,
इस दरिया को कब समुंदर में तू बहाएगी ज़िंदगी?
उसके इंतज़ार में कट रही है ज़िंदगी,
इस इंतज़ार को इकरार कब तू बनाएगी ज़िंदगी?
अनसुलझी पहेली बनके जी रहा हूँ,
इस पहेली को कब तू सुलझाएगी ज़िंदगी?

