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Manju Saini

Romance

4  

Manju Saini

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शरदपूर्णिमा की रात

शरदपूर्णिमा की रात

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उस दिन हमारे प्रेम में मानो ... 

ओस की ताजा ताजा हल्की भीगी

बरसात थी वह शरदपूर्णिमा की

रोपा था हमने यहीँ बस यूँ ही प्रीत का

वह हरसिंगार यहीं…

प्रेम के ताजा जल समान..!

मानों शरदपूर्णिमा की चाँदनी फैली हो..!!

तुम कुछ कहने वाले थे शायद …

तुम्हे लगा मैं ठहरना चाहती हूँ यहीं 

तुम में ही कहीं..

श्वेत-सुंगधित-हरसिंगार सी यादो में..

यह मेरी हाथों की मिट्टी ऐसी...

क्या तुम्हें पता है, तुम मुझमे मेरे जैसे ..!

तुम्हारा स्पर्श पाने को ही जैसे मैं

पूर्णिमा की चाँदनी सी मुस्कुराउंगी और

बिछ- बिछ जाऊँगी ताजा ओस की बूंद सी

है मिलन की हर सुबह ख़ूबसूरत सी

मैं तुमसे मिलने आऊँगी ओस की ताजा बून्द बन

मैं हरसिंगार बन खिलूँगी उस पर गिर कर

तब महकने लगूंगी तुम्हारे शीतल प्रेम में...

तुम में ही कहीं तुम बनकर..

शरदपूर्णिमा की चाँदनी बनकर..

तुम्हारे दिल रूपी आंगन में मैं

मैं ही यूँ बस जाने की इच्छा लिए,

आज फिर यादें ताजा हुई लगा आज

फ़िर कहीं तुममें ही यूँ सिमट जाऊँगी..!

आज फिर वही शरदपूर्णिमा की रात..!!



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