नासमझ
नासमझ


मैं समझ नहीं पाती हूं
क्या दिखता है तुम्हें मुझ में
तुम कहते हो कि मुझे ढूंढते हो
कभी बाहर कभी खुद में।
मैं समझ नहीं पाती हूं
जब हंसते हो मेरी नादानी पर
और अगले पल तुम रूठ जाते हो
अपनी इस "दीवानी" पर।
मैं समझ नहीं पाती हूं
क्यों मेरे लिए लड़ जाते हो
पर रोकती हूं जब मैं तुमको
बिन बोले कुछ बढ़ जाते हो।
मैं समझ नहीं पाती हूं
क्यों चाहते हो मुझे इतना
जब "सब" कुछ है तुम्हारे पास
शायद अम्बर जितना।
मैं समझ नहीं पाती हूं
और तुम भी नहीं समझाते हो
क्या सच में मैं वह सब कुछ हूं
जितना की तुम चाहते हो।