तुम्हारे आंगन में
तुम्हारे आंगन में
तुम्हारे ही आंगन में
तुम्हारी ही मर्यादाओं
अपहरण हो रहा है भारत।
रावण आता है कभी
नायक की भेषभूषा में
कभी सन्त महात्मा के रूप में
उड़ा ले जाता है तुम्हारी ही
मानवीय सभ्यता की जमीन,
और तुम्हारे निवासी जी जान से जुटे हुये हैं
अपनी स्वार्थ साधना में
उनकी चैतन्यता मौन है
उनका विवेक अपाहिज है
और चल रहा है एक भीषण संग्राम
तुम्हारी पवित्र और जीवनदायी जमीन पर।
देखना लाज़िम था सब कुछ
तुम्हारी दी हुई आंख से
और कहना जिम्मेदारी बनती है
तुम्हारा होने की मर्यादा में।
चलो अपना कर्तव्य निभाते हैं
क्योंकि अधिकार तो फ्रिज हैं
तुम्हारी मर्यादाओं के अपहरण की
आधुनिक तकनीक में।
लोकतंत्र अंगड़ाई ले रहा है
और इंसान मचल रहा है सत्ता के लिये
जो अब तक तो नाकाम ही रही है
तुम्हारे ही गुरुत्व की स्थापना में।
