तुम ..
तुम ..
तुम कभी -कभी य़ा शायद
हर रोज , मेरे सपनो में आती हो
मेरी अध खुली पलकों से गुजरती
मेरी नींदों की सीढ़ियों से उतरती
आ जाती हो फिर ,मेरे आंगन में
मेरे यथार्थ से परे ,एक और जहां में
मुझे देखती हो ,मुस्कुराती हो
ऊंगलियों से, मेरे बिखरे अस्तित्व को
समेटती हो ,
मेरे अधूरे मन को, फिर से सम्पूर्ण करती हो
हर गुजरे पल को , मेरे सामने
कुछ यूं रखती हो, जैसे कभी गए ही नहीं
मेरे साथ, कुछ यूं चलती हो
जैसे कभी रुकी ही नहीं ,
मुझे मुझमे ही ढूंढ लेती हो तुम
जो शायद अब रहा ही नहीं ,
मैं शब्द बुनता हूँ ,तुम
खामोशी ओढ़ लेती हो
मैं तुम्हे रोकना चाहता हूँ ,
तुम्हे जीना चाहता हूँ ,हर रोज
पर तुम फिर गुजरती हवाओं सी
मुझे छूती हुई निकल जाती हो
मेरी हथेली पे फिर एक ,
मृग तृष्णा छोड़के
तुम चली जाती हो ,हर बार की तरह
मुझे छोड़के , मेरे यथार्थ के साथ
कभी कभी य़ा शायद हर रोज
मेरे सपनो में आती हो..
तुम!

