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Amit Srivastava

Romance

4  

Amit Srivastava

Romance

तुम ..

तुम ..

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तुम कभी -कभी य़ा शायद 

हर रोज , मेरे सपनो में आती हो 

मेरी अध खुली पलकों से गुजरती 

मेरी नींदों की सीढ़ियों से उतरती 

आ जाती हो फिर ,मेरे आंगन में 

मेरे यथार्थ से परे ,एक और जहां में 

मुझे देखती हो ,मुस्कुराती हो 

ऊंगलियों से, मेरे बिखरे अस्तित्व को 

समेटती हो ,

मेरे अधूरे मन को, फिर से सम्पूर्ण करती हो 

हर गुजरे पल को , मेरे सामने 

कुछ यूं रखती हो, जैसे कभी गए ही नहीं 

मेरे साथ, कुछ यूं चलती हो 

जैसे कभी रुकी ही नहीं ,

मुझे मुझमे ही ढूंढ लेती हो तुम 

जो शायद अब रहा ही नहीं ,

मैं शब्द बुनता हूँ ,तुम 

खामोशी ओढ़ लेती हो 

मैं तुम्हे रोकना चाहता हूँ ,

तुम्हे जीना चाहता हूँ ,हर रोज 

पर तुम फिर गुजरती हवाओं सी 

मुझे छूती हुई निकल जाती हो 

मेरी हथेली पे फिर एक ,

मृग तृष्णा छोड़के 

तुम चली जाती हो ,हर बार की तरह 

मुझे छोड़के , मेरे यथार्थ के साथ 

कभी कभी य़ा शायद हर रोज

मेरे सपनो में आती हो..

तुम!


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