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तुम शादी कब करोगी ?

तुम शादी कब करोगी ?

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तुम शादी कब करोगी ?

आज सुबह दिखा कर

मेरे बालों में एक चाँदी का तार

मानो आईना पूछ रहा हो

मुझसे बार-बार

तुम शादी कब करोगी ?


इस सवाल से वैसे तो

मैं थी नहीं अंजान ।

दोस्तों, रिश्तेदारों ने

खड़ी रखी थी लड़को की कतार

फिर भी जब सुना तो, बिन देखे

बिन सोच हीे दिया था टाल, कि

तुम शादी कब करोगी ?


आज वो आईना मुझे नहीं

मेरे अंतर्मन को घूर रहा था

मेरी चेतना की हलचल को

कान लगाए सून रहा था ।

आज नहीं कुछ छुपता उससे

निरुत्तर नहीं जाता ये सवाल की

तुम शादी कब करोगी ?


वैसे तो

ढ़ोल, नगाड़े, लहँगे, जेवर

सब मुझको बड़े प्यारे थे

मेहँदी, डोली, फेरे

सब लगते मुझे न्यारे थे ।

फिर क्यों खुद से पूछती हूँ की

तुम शादी कब करोगी ?


तब ज़रा से हवा का

एक झोका आया

चेहरा बालों से ढक आया

जब आँखों से उन्हें हटाया

आईने में कुछ देर के लिए

साथ खड़ा उसका अक्स सा आया

जिस पर दिया था मैंने

कभी सब कुछ वार

उसने छेड़ा, किया यही सवाल की

तुम शादी कब करोगी ?


कभी साया बनकर चलता है

कभी दूर से मुझको तकता है

ज़िंदगी की आपा धापी में

जब पैर कही पर थकता है

साथ गुज़ारे पलों का गुलदस्ता

सम्बल मेरा बनता है ।

अपनी शर्तों पर जीने का

फिर दृढ़ सकंल्प उभरता है ।

आईने की तरफ फिर आँख मिचका कर

होंठों पर इठलाती मुस्कान लगाकर

ठहाके मार खुद से कहती हूँ

तुम शादी कब करोगी ?


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