नारी तू क्यों सहती है?
नारी तू क्यों सहती है?
आज भी क्यों नारी पर लगाया जाता है रूढ़िवादी सोच का पहरा,
जब वह अपने लिए लड़ती है तो क्यों बन जाता है समाज बहरा,
बचपन से ही झूठी उम्मीदों की खूंटी से बांध दिया जाता है उसको,
दहलीज के अंदर रखकर पाबंदी का घेरे में रखा जाता है उसको,
ख्वाहिशों की बलि देकर जिम्मेदारियों का एहसास बताया जाता है,
कर्तव्यों की बेड़ियाँ डालकर, चारदीवारी में बंद कर दिया जाता है,
जब भी मिली खुशियाँ उन खुशियों के पंख को कतर दिया जाता है,
जब भी पीड़ा में अपनी आवाज उठाती उसे चुप कर दिया जाता है,
सर पर चुनर रख संस्कारों का गहना पहनकर चुपचाप चली जाती है,
कितनी बेटियाँ तो ससुराल में अपने दहेज की आग में जल जाती है,
छिप- छिपकर कर जी भर रो लेती है पीड़ा के हर आंसू वो पी लेती है,
अपने हक के लिए कुछ न मांगती कभी वह अपने होंठ सी लेती है,
पति के साथ कंधे से कंधा मिला काम करना चाहे तो ताने मिलते हैं,
और पुरुष के सामने स्त्री की खूबियों को सब नजर अंदाज करते हैं,
विवाह के बाद अपने अरमानों की गठरी बांधकर कहीं छिपा देती है,
क्यों सहती रहती है यह सब कुछ ? हे नारी तू क्यों कुछ न कहती है?