तुम कब आओगी
तुम कब आओगी


ये बारिश का मौसम
और मक्कई की फसल
मक्कई के अधपके दाने
और सिगरी पे सुलगती आंच
वो काले हाथ, काले होंठ
और मक्कई दानो का
मीठा जायका
और तुमने कहा था ना
"मैं न काले करुँगी
अपने हाथ"
मैं एक एक दाने मसलकर
कच्चे दाने तुम्हें देता रहा
और तुम मासूम गिलहरी सी
वो दाने चुगती रही
ज्यूँ ही दाने ख़त्म हुए
तुम खिलखिलाकर उठी
"देखो, तुम तो और भी
काले हो गए"
कहकर जोर से भागी तुम
मैं भी
भागा था पीछे
के अब तो ये हाथ
तुम पर छाप कर ही मानूंगा
पर ना हाथ आई
ना लौटी तुम
मैं अब तलक बैठा हूँ
राह तकते उम्र मानो
बीत भी गयी
और ठहर भी गये
ये हाथ
अब भी काले है
बहोत जिद्दी है ये
तुमसे "जुदाई की कालिख"
जब जब पसीना पोंछा
ये माथे पे लग गयी
जब जब मली हैं आँखें
ये उनमें भी रह गयी
अब ख्वाब अँधेरे हैं
तकदीर भी सियाह
"कब आओगी"
के जब मैं ही
हो जाउगां राख ?