तुम और बसंत
तुम और बसंत
उस रोज़ कुछ अजीब सी थी
दिल में हज़ार एक कश्मकश सी थी
हम कुछ सोच के चल दिए घर से
आँखों में तुम्हारी एक झलक सी थी
मौसम कुछ नाज़ुक सी थी
हमारे दिल में चाहत की पतंग सी थी
प्यार का महीना था, बसंत की ख्वाइश सी थी
ख्वाबों के आँगन में, तुम्हारी नाम सी थी
आँखें बंद करके सांस में तुम्हारी खुशबु सी थी
पीले गुलाब भी थे और तुम्हारी शिकायतें भी थी
उस रोज़ कुछ अजीब सी थी
नये पत्तों का बहार भी था
और साथ तेरे होंठ की हसीं भी थी |

