रात की बसंत
रात की बसंत
रात के सन्नाटे को चीरते हुए
वह दिखी, बेबाग,
सड़क के किनारे,
बेजान सी खड़ी थी
सर्दी की हवा छू कर उसे मुस्कुरा उठी
पर उस की हसीं कबकी रो पड़ी थी
आज गर्मी की तलाश पैसे से मिट जाती है
वह भी वही पाने निकली थी
हर घर में जश्न का मौसम था
सिर्फ उसी की दिल में डर का श्रवण था
वक़्त बीत चला था
उसे अब किनारे की चाहत जगी थी।
सुबह को वह सबको मिली थी
श्रृंगार पूरा करके
बसंत सी खिली हुई हसीन
बंद आंखें और मुरझाई हुई कली सी।
