ठहर सा गया हूँ चलते चलते
ठहर सा गया हूँ चलते चलते
जब से होश संभाले हैं जीवन में, बहुत चल चुका हूँ,
चलते चलते जीवन पथ पर, मैं बहुत थक चुका हूँ।
बहुत कुछ किया जीवन में, अब जिन्दगी ठहर चूकी,
जिन्दगी के साथ साथ, मेरे पैरों की चाल रुक चूकी।
थक गये पैर चल चल कर, पता नहीं कितना चला हूँ,
अपनों के लिए करते करते, खुद को ही भूला चुका हूँ।
मंजिल की थी तलाश मुझे, पर मिले थे कई भटकाव,
राह थी बड़ी टेढ़ी मेढ़ी, आ गया जिन्दगी में बिखराव।
राहगीर बहुत मिले राह में, सच्चा हमराही एक न मिला,
धोखे बहुत मिले जिन्दगी में, है मुझे इसी बात का गिला।
किस किस का मैं भरोसा करूँ, कभी मैं यह समझ न पाया,
जिस जिस पर मैंने किया भरोसा, धोखा ही धोखा है पाया।
अब तो जिन्दगी से मोह न रहा, सब जैसे विलग विलग,
अपने भी साथ छोड़ गये सब, हो गया मैं बिलकुल अलग।
सब कुछ मानों रूठा रूठा सा है, लगता है सब कुछ बेमानी,
किसी के मन में ईमान नहीं अब, बस करते हैं बेईमानी।
बहुत जटिल है जिन्दगी का ये दौर, काटे नहीं कटे जिन्दगी,
कैसे अब चलूँ जीवन पथ पर, राह दिखा मुझे तू ए जिन्दगी।
सीने में मानों चुभ रहे खंजर, हो रहा सब कुछ चकनाचूर,
जीने को अब मन नहीं करता, पर जीने को हूँ मजबूर।
इस ठहरी हुई जिन्दगी में, काश कोई साथ चल पड़ता मेरे,
लड़ जाता फिर मैं सुनामी से, मिट जाते जीवन के थपेड़े।
कुछ गति आती जीवन में वापस, तो मिट जाता ये ठहराव,
अब न सहा जाता यह अकेलापन, काश मिट जाता बिखराव।