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Nishant Kumar Saxena

Abstract

4  

Nishant Kumar Saxena

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त्राहिमाम!

त्राहिमाम!

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हे प्रभु जब जगत ने मेरी अस्मिता को कुचला 

तब तुम ही थे 

इस शोषित की पुकार सुनने वाले।

तुम्हारे ह्रदय लगकर 

सच्चिदानंद की अनुभूति की है मैंने।


मैं जैसा बना तुम्हारे संस्कार, 

तुमने तराशा, संवारा, निखारा।

मोह, राग, द्वेष से तुमने उबारा।

मेरे प्रेम के अभाव को 

तुम्हारे अतिरिक्त भर सका कौन?


मैं तुम्हारा पागल गंधर्व हूं 

जो तुम्हारी महिमा, विरह वेदना

और भक्ति पदों को गाता है।

जब कोई साथ नहीं होता था 

तब अकेले आता था  

कोसों दूर तुमसे मिलने।

मंदबुद्धि जगत उस समय भी रोकता था 

और आज भी।

बिरह बहुत हुआ 

कहां हो ?


क्या मुझ जैसे मनीषियों का 

वह स्वप्न, स्वप्न ही रह जाएगा।

क्या धरा पर धर्म स्थापना नहीं होगी।

क्या स्वर्ण युग कभी नहीं आएगा।

क्या पाप के साम्राज्य का अंत नहीं होगा।

महात्मा जनों के हृदय रो रहे हैं।

दया करो।

अब तो चरम सीमा भी लांघ दी गई।

तुम्हारे नाम पर व्यापार हो रहे हैं।

तिमिर के बादलों को चीरते हुए 

तेजस्वी सूर्य की भांति 

दीनों के तेज बनो प्रभो।

सांसो की माला में तुम्हारा नाम रहता है।

आत्मा सिर्फ क्रंदन करती है।

शब्द नहीं होते रुदन में गान होता है। 


ज्ञात है तुम्हें 

मैंने क्या चाहा ? 

एक मोक्ष के अतिरिक्त 

और कुछ भी नहीं।

तुम जानते हो 

त्याग मेरे लिए दुष्कर नहीं।


देर ना हो नाथ 

साहस टूट रहा है।

यह जीवन भी 

तुम्हारी प्राप्ति के बिना चला गया।

तो दोष तुम्हारा ही होगा 

मेरा नहीं।

हे नाथ !

त्राहिमाम !


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