स्वाभिमान ही जीवन है
स्वाभिमान ही जीवन है
आज मैं पूछती एक सवाल,
बस मन में सोचो एक बार,
वो कौन जीव जन हैं जग में,
जो मृतप्रायः कहलाते हैं,
आज तुम्हें हम मरे हुए लोगों की,
नयी परिभाषा बतलाते है,
मरे हुए नहीं हैं वो शहीद,
जो देश पर कुर्बान हुए,
या वो मछली जिसने स्वदेश बिन,
तड़पते हुए निज प्राण त्याग दिए,
कैसे मर सकता है वो चातक,
जो इंतज़ार में बारिश के,
यूं बैठे बैठे सो गया,
पर अपनी प्यास बुझाने को,
ना हाथ कहीं फैला सका,
ना ही वो शरीर मरे हैं,
जो चार जनों के कंधे पर,
मरघट की ओर जा रहे हैं,
और ना ही वो लाश मरी है,
जो चिता में जलकर भी,
अग्निशिखा सी हुंकार रही है,
ये तो सब नवजीवन की,
शुरुआत ही कहलाते हैं,
आज तुम्हें हम मरे हुए लोगों की,
नयी परिभाषा बतलाते हैं,
मर चुका है वो शेर,
जो दहाड़ना भूल गया,
और केवल जीवन पाने को,
ग़ुलामी को जिसने क़ुबूल किया,
मर चुका है वो सर्प,
जो भूल के अपना तेज प्रखर,
सर्कस में नाच दिखाता है,
और वो तोता जो पिंजड़े में,
मिट्ठू मिट्ठू गाता है,
मर चुके हैं वो जीव धरा पर,
जो स्वाभिमान सब खो चुके हैं,
और अपनी गौरव मर्यादा,
इतिहास को अपने भूल चुके हैं,
मर चुका है वो इंसान,
जी भूल चुका खुद की पहचान,
जो राज्य देश अपने गौरव को
लुटते हुए देखता रहा जाता है,
उस देश का प्रत्येक राज कण,
शमशान समां बन जाता है,
स्वाभिमान ही जीवन है,
जिसने इसको पाया है,
इस धरती पर सदियों से,
अमर वही बन पाया है।
