सुतीक्ष्ण की गुरुदक्षिणा
सुतीक्ष्ण की गुरुदक्षिणा
अगस्त्य मुनि के आश्रम में
सुतीक्ष्ण नाम का एक शिष्य था
बचपना था, बच्चा बुद्धि थी पर
प्रभु भजन में लीन था रहता।
मुनि एक दिन बाहर जा रहे
सुतीक्ष्ण को बुलाया और बोले
‘ सेवा करना रोज़ शालिग्राम की
नहलाना, चन्दन लगाना तुम इन्हें ‘।
अगले दिन नदी के तट पर पहुँचा
सुतीक्षण शालिग्राम को लेकर
देखा तट पर जामुन का पेड़ है
पके जामुन लगे हुए उसपर।
कैसे जामुन को तोड़ा जाए
बालक बुद्धि थी लगाई
शालिग्राम को मारा फेंककर
कुछ जामुन थीं नीचे आयीं।
जामुन तो मिल गयीं पर
शालिग्राम चले गए नदी में
गुरु जी से अब क्या कहूँगा
सुतीक्ष्ण तब मन में सोचें।
पके हुए एक बड़े जामुन को
शालिग्राम की जगह रख दिया
उसपर उन्होंने फिर लगाया
घिसकर चन्दन का एक टीका।
अगस्त्य मुनि जब वापिस आए
शालिग्राम की पूजा की तो
कपड़े से साफ़ करने लगे
पानी से नहलाकर उनको।
जामुन का छिलका उतर गया
समझ गए करतूत ये किसकी
परन्तु अन्दर से जानते वो
बालक बुद्धि ये सुतीक्ष्ण की।
बड़े हुए सुतीक्ष्ण जब, तब मुनि ने
गाय चराने भेजा उनको
प्रभु भजन में मगन उनका मन
गाय चर रहीं खेतों को।
रोज़ रोज़ होने लगा ऐसा
गुरु अगस्त्य थोड़ा आधीर हुए
समझ में उनकी ना आ रहा
मैं इसको समझाऊँ कैसे।
एक दिन सुतीक्ष्ण को बुलाया
कहने लगे ‘ सुतीक्ष्ण तुम्हारी
शिक्षा अब पूरी हो गयी
जा सकते हो घर तुम अभी ‘।
सुतीक्ष्ण कहे ‘ गुरु जी, अगर
शिक्षा हो गयी पूरी मेरी
बतलाइए क्या गुरुदक्षिणा दूँ
जाऊँगा मैं उसके बाद ही ‘।
गुरु जी फँस गए ये सुनकर
एक युक्ति आयी तब मन में
बोले ‘ सुतीक्ष्ण, गुरु दक्षिणा में
मिला देना तुम मुझे प्रभु से ‘।
हाथ जोड़ सुतीक्ष्ण चला गया
नज़दीक ही कुटिया एक बनाई
बहुत समय बीत गया था
प्रभु भजन करते करते ही।
इधर राम, सीता और लक्ष्मण
वन वन में जब भटक रहे थे
प्रभु आए निकट एक वन में
सुतीक्ष्ण ने ये सुना कहीं से।
प्रभु की भक्ति में लीन हुआ
ख़ुशी में वो तो नाचे गाए
वृक्ष की ओट से देख रहे प्रभु
नज़दीक भक्त के जब वो आए।
मन में राजा राम रूप की
छवि बैठा रखी सुतीक्ष्ण ने
जड़ हो गया था वो वहीं पर
दर्शन पाकर मन में प्रभु के।
भगवान उसको हिलाएँ, डुलाएँ पर
था लीन प्रभु में सुतीक्ष्ण तो
विराट रूप दिखाया मन में तो
घबराकर उठ खड़ा हुआ वो।
प्रभु को अपने सामने पाकर
होश ना रहा उसे अपना
प्रभु ने गले लगाया उसको
उसके लिए तो ये एक सपना।
कुटिया में ले गया प्रभु को
जल पिलाया, स्वागत किया उनका
प्रभ कहें ‘ हे सुतीक्ष्ण
वर माँग लो अपने मन का।
सुतीक्ष्ण कहे ‘ हे प्रभु, मुझे
वर माँगना नही है आता
मैं तो एक मूढ़ मूर्ख हूँ
बस आपका दर्शन मुझको भाता।
प्रभु कहें, ‘ निष्काम भक्ति मेरी
मैंने तुम्हें ऐसे ही दे दी ‘
सुतीक्ष्ण कहे, ‘ तो हे प्रभु ! अब
एक फ़रियाद सुन लो तुम मेरी।
सीता जी और लक्ष्मण के साथ में
धनुष वाण लेकर कंधे पर
सदा रहो मेरे हृदय में
यह कृपा कर दीजिए मुझपर ‘।
प्रभु कहें ‘ सुतीक्ष्ण, तुमने जो माँगा
मिल जाएगा वो सब तुम्हें
और इस समय इस वन में
मिलने आया मैं अगस्त्य मुनि से ‘।
सुतीक्ष्ण कहे कि हे प्रभु
मैं भी आपके साथ चलूँगा
मुस्कुराए ये बात सुन लक्ष्मण
श्री राम की और था देखा।
मन ही मन लक्ष्मण कहें भगवान को
चतुराई देखो भक्त की
राम तो ये जानते ही थे कि
क्या इच्छा है सुतीक्ष्ण की।
अगस्त्य मुनि के आश्रम के
दरवाज़े पर पहुँचे जब सभी
सुतीक्ष्ण कहे’ हे प्रभु, अब
थोड़ी देर रुकिए आप यहीं ‘।
गुरु के पास पहुँचे सुतीक्ष्ण
चरणों में प्रणाम किया उनके
कहें ‘ गुरु जी, आपकी दक्षिणा
लेकर आया मैं आपके लिए।
कहते हैं रामायण में भगवान ने
विराट रूप दिखलाया बस दो को
एक माता कौशल्या और
दूसरे अपने भक्त सुतीक्ष्ण को।
भाँति भाँति की गुरुदक्षिणा
शिष्य अपने गुरु को देते
और कुछ शिष्य ऐसे भी
गुरु को मिला देते प्रभु से।