सुख के रंग-प्रकृति के संग
सुख के रंग-प्रकृति के संग
मानव भले भ्रमित हो जाए,
पहचान सके न असली -नकली।
बिन भ्रम असली पहचान ही लेगी,
मधुमक्खी और प्यारी सी तितली।
कुदरत के नियमों को भुलाकर,
भोग रहा है मानव दुख अपार।
आमंत्रित करता है नए दुखों को,
करते हुए कोई एक सपना साकार।
जागरण वेला में सोता है,
शयन समय पर करता है काम।
निशाचरी इस प्रवृत्ति के चलते,
पनपे संकट और व्याधि तमाम।
बाधाओं से अनिष्ट होता है,
सिद्ध सहयोग से होते शुभ काम।
हम आर्य परम्पराओं को अपनाएं,
पाएं अविरल सतत् सुखद आराम।