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Chandra prabha Kumar

Fantasy

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Chandra prabha Kumar

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सतत जागरण

सतत जागरण

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सतत जागरण

 कुहू कुहू कोयल 

तुम क्यों करती हो,

 तुम्हारी पुकार 

निरन्तर आ रही है। 


मैं यहॉं बैठी,

    पास में मेज़ कुर्सी,

    और ढेर सी किताबें हैं। 

मन लगाती हूँ,

कुछ पढ़ती हूँ।

   फिर वही कुहू,

    कुहू कुहू कुहू। 

     क्या तुम थकती नहीं

     एक गति से, एक ही अन्तर पर

      तुम कब से गा रही हो। 


मैं थक गई हूँ,

आंखें बन्द कर ली हैं,

सुस्ता कर फिर बैठ गई हूँ। 

और तुम

तुम्हारी यह कुहू

रुकने का नाम नहीं लेती। 


    क्या तुम्हें खाने नहीं जाना?

     क्या तुम्हें सोना नहीं है?

     तुम्हारी कुहू 

    मुझे बैठने नहीं देती। 


    तुम आम्र कुंज की प्रहरी 

     सदा जगती हो। 

    अविराम कूकती हो,

    सम गति पर गाती हो। 

    तभी बौर लगते हैं,

    टिकोरे फूलते हैं,,

    नव पल्लव आते हैं,

    आम गदराता है। 


        मेरे भी कर्म ये

        सतत जागरण से

        अभिमंत्रित होंगे,

        और तब मैं भी

        सहज श्रम कर

        साधना का प्रसाद लूँगी।


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