स्त्री
स्त्री
सदियों से नारि लड़ती रही है
स्वछंद हवा में विचरण को
तनिक संवर जो खडी हो रही
पुरुष सामने उसके रण को
ईश्वरीय सर्वश्रेष्ठ इस कृति ने
कितने अत्याचार झेले हैं
व्यथा किसी से कह न सकें
दिल मे अश्कों के मेले हैं
सहमी देखी आज भी नारी
गली शहर और गांव में
घात मे बैठे दुर्योधन कितने
चीरहरण के दांव मे
बचते बचाते अस्मिता छुपाते
जीवन की डगमग नाव मे
छुपने की जुगत मे भटक रही
छाले लेकर के पांव मे
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या तो दे दे जान वो अपनी
या इज्ज्त को कर दे कुर्बान
स्त्री अगर जो जीना चाहे तो
भेडियों का कहना मान
सहती आई सदियों से सारे
गमों को तू चुपचाप
मुंह जब भी खोलना चाहा तो
तुझको ही लगाया पाप
सारे आडंबर आते हैं इसको
समाज बडा ही शातिर है
पंच भी कर देंगें पाप मुक्त
जो तू गर उनकी खातिर है
तू ही समझ ले कैसे तुझको
इस समाज मे रहना है
आगे बढने से रोकेगा हरदम
और दुर्गति भी सहना है