सोचा जब भी सुलझा लूँ
सोचा जब भी सुलझा लूँ
हर तस्वीर कुछ कहती है,
कुछ सुनी अनसुनी सी कहानी,
फिर भी तो वो तस्वीर मूक रहती है।
सोचा जब भी सुलझा लूँ,
ज़िन्दगी में आई उलझनों को,
जिंदगी की हर तान ही उलझ जाती है।
मयस्सर हो मेरे हमसफ़र को,
इस दुनिया की तमाम खुशियाँ,
पर खुशियाँ मुझ से मुंह मोड़ लेती है।
किस्मत भी पाई मैंने ऐसी,
हर लम्हा टूटती हुई उम्मीदों से,
ज़िन्दगी की हर शाम उलझ जाती है।
मेरी बदकिस्मती के काँटे,
उलझ न जाए उसके दामन में,
यही इस दिल की कोशिश रहती है।
छुपाना चाहता हूँ दर्द को,
पर मेरी इन आँखों में पढ़कर,
वो दिल की हर बात समझ जाती है।
सह सकता हर तकलीफ़,
पर कैसे तोड़ दूँ उन ख्वाबों को,
जिसको वो पलकों में सजाए बैठी है।
भूल जाता हूँ हर उलझन,
सुकून मिलता उस पल जब वो,
मुस्कुराकर हाथों को थाम लेती है।
पर कहने की हिम्मत कहाँ,
तम के क़फ़स में बेबस ज़िंदगी,
जिसे उम्मीद भी नज़र नहीं आती है।
रेत की तरह फिसल रहा सब,
जाने कौन सा इम्तिहान बाकी है,
हर कोशिश मेरी नाकाम हो जाती है।
मेरे हालातों से वाकिफ वो,
तभी तो कितनी ही ख्वाहिशों को,
अक्सर दिल में तदफीन कर देती है।
गर वो पतवार ना बनती,
कब की डूबती बीच मझधार,
मेरी इस ज़िन्दगी की टूटी कश्ती है।
उसका इश्क़ ही हिम्मत,
ज़िन्दगी के इस कठिन सफर में,
जो डगमगाते कदम संभाल देती है।
जिस कदर बिखर चुका हूँ,
शायद वजूद ही कहाँ रह जाता,
एक वही है जिससे हिम्मत मिलती है।
कहती नहीं कभी जुबां से,
पर वो तो मेरे दर्द के जाम का,
हर एक घूँट मुस्कुराकर बाँट लेती है।
सह लेता हूँ ज़िन्दगी के काँटे,
उसकी मोहब्बत के फूलों के सहारे,
जिसकी खुशबू ज़िंदगी आसां करती है।
अब डर नहीं मुश्किलों से,
देखता हूँ ज़िंदगी भी कब तक,
और किस मोड़ तक इम्तिहान लेती है।