संसार ही स्वर्ग बन जाता
संसार ही स्वर्ग बन जाता
काश ! सासें बहुओं को बेटी ही मानती,
बहुएं सासों को मनाने लग जाए माता।
क्या जरूरत थी तब भिस्त की चाह की ?
फिर तो यह संसार ही स्वर्ग बन जाता।
बाप - बेटे, भाइयों को पत्नियां न लड़ाए,
दोस्त सा व्यवहार करने लगे हर भ्राता।
घर की बहुएं - बेटियां बहनों सी रहे सब,
फिर तो यह संसार ही स्वर्ग बन जाता।
बहुओं को न सताए हम और बेटे हमारे,
बेटियों को न सताए ससुराल - जामाता।
हर रिश्तों में प्यार ही प्यार फैल जाए तो,
फिर तो यह संसार ही स्वर्ग बन जाता।
काश ! पड़ोसी से कोई पड़ोसी न लड़ता,
ईर्ष्या, राग, द्वेष का भाव खत्म हो जाता।
मोह, ममता, नफरत की दीवारें गिर जाती,
फिर तो यह संसार ही स्वर्ग बन जाता।
रहते न रोग - शोक, दम्भ, आधी और व्याधि,
न रहता झगड़े का हेतु जोरु, जमी और बुढ़ापा।
सबके घरों में रहती बराबर सी सुविधाएं तो,
फिर तो यह संसार ही स्वर्ग बन जाता।
सर्पणी सा न लीलती निज जाए को जननी,
पिता पर नारी के झांसे में सुत को न भुलाता।
बहु - बेटे न ठुकराते अपने ही मां - बाप को तो,
फिर तो यह संसार ही स्वर्ग बन जाता।
रंग भेद, जाति -धर्म के सब झगड़े ही मिट जाते,
आता न अजीवन किसी को इस जग में बुढ़ापा।
दया, करुणा, सहजता, सरलता सब में फैल जाती,
तो फिर तो यह संसार ही स्वर्ग बन जाता।
