संभावनाओं के बीज..
संभावनाओं के बीज..
भले ही दिखने लगें चेहरे पर
उम्र की गाढ़ी लकीरें ,
मत समझना कि
सब कुछ हो रहा है समाप्त
धीरे-धीरे ,
शुष्क होती हुई देह में
बाकी रह ही जाती है कहीं न कहीं
थोड़ी सी नमी
और
हथेलियों में
थोड़ी सी तपन !!
जैसे कि ...
उस "प्रलय" के बाद
रह गई थी वहां
थोड़ी सी गीली मिट्टी ,
फिर .. दिखी हरी दूब
फिर.. छोटे-छोटे जीवाश्म
फिर.. छोटे-छोटे जीव..
और फिर..इसी तरह पनपता रहा जीवन !!
सुनो..
हम भी तलाश ही लेंगें
थोड़ी सी गीली मिट्टी
मन के किसी ओट में ,
बिखेरेंगें
"संभावनाओं के बीज"..
अंकुरित होंगीं आशाएं..
फिर..उगेगी "प्रेम-दूब"
बिल्कुल हरी-भरी
और..
शुरू होगा जीवन
प्रेम का !!
देखो तो सही..
ये सब सोचते हुए
ज्यों-ज्यों गिर रहें हैं आंसूं
डायरी के पीले पन्नें हुए जा रहे हैं हरे !!