समर्पण
समर्पण
यहाँ-वहाँ टुकड़ों में मिलूँगी
मेरे आसमान में बिखरी-सी।
साबुन का झाग हो जैसे
इतनी हल्की-सी बनूँगी
सोख कर स्नेह सारा
बादल बन फैल जाऊँगी।
रुई के टुकड़ों का रूप धर
सोख लूँगी सारा दर्द खुद में
और निचोड़ खुद को तुम पर
सुख की बारिश-सी बरसूँगी।
हर एक अवगुण को सोख
बनूँगी काली घनेरी घटा
जब सूरज जलाएगा
तुम पर आवरण करूँगी।
कभी जब मौज में होंगे
ढूँढ लेना मुझमें कोई आकार
कभी भालू,तितली, कभी सियार
रूप तुम्हारी कल्पनाओं का बनूँगी।
फिर भी ना सुहाई मैं तुम्हें
तो फेर लेना आँखें मुझसे
मैं अपने आसमान में
टुकड़े-टुकड़े बिखर
सफ़ेद,स्लेटी,फाहों सी दिखती रहूँगी।