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तृप्ति वर्मा “अंतस”

Abstract

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तृप्ति वर्मा “अंतस”

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वो

वो

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वो पन्नों से बातें करती रही,

मन की स्याही, लेखनी में भरती रही।

दबे-छिपे विद्रोह की चिंगरियाँ,

ठंडी राख को गर्म करती रही।

पिसती रही समय की चक्की में,

बनती रही और निखरती रही।

बढ़ती रही अपने ही अंदर कहीं,

खुद अपनी काट-छाँट करती रही।

बन के निकली जब वो कारखाने से,

दुनिया उसे देख वाह-वाह करती रही।


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