वो
वो
वो पन्नों से बातें करती रही,
मन की स्याही, लेखनी में भरती रही।
दबे-छिपे विद्रोह की चिंगरियाँ,
ठंडी राख को गर्म करती रही।
पिसती रही समय की चक्की में,
बनती रही और निखरती रही।
बढ़ती रही अपने ही अंदर कहीं,
खुद अपनी काट-छाँट करती रही।
बन के निकली जब वो कारखाने से,
दुनिया उसे देख वाह-वाह करती रही।
