समंतराल
समंतराल
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ना दर्द है
ना धूप है
यह कैसी दुनिया
लगे बेदर्द हैं
हाँ खुश हूं मैं
हाँ बेसुध हूँ मैं
अपने दुनिया में
बेशक सफल हूँ मैं
पर खलती तेरी कमी
बेजान सी यह ज़िन्दगी
यह आंखों की
नमी ढूंढे तेरी गली
यह सब कुछ लगे बेमाना
जूठी लगे यह मेरा सफरनामा
क्यों ज़माने के सब
बंधन तोड़ तू नहीं मिलती
हाथों की लकीरें क्यों नहीं मिलती
जिस तरह कभी मिलती थी
समंतराल सी क्यों जीते हैं
हम अपनी अपनी ज़िंदगी में
क्या मुझसे मिलने की
कशिश तुझे भी होती है
या खुदा यहीं दास्तान ए
ज़िन्दगी सिर्फ मेरे लिए लिखी है।