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Sahil Hindustaani

Tragedy

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Sahil Hindustaani

Tragedy

समाज

समाज

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गढ़े मुर्दे उखाड़ना, ये समाज की पहचान है

आज समाज, समाज नही, एक श्मशान है

हरदम अपनी चलाता बाकी को रखता चुप है

ना रखता ये हाथ पर बाँधता सबकी ज़ुबान है

जंज़ीरों में बाँध कर रखता है ये हमें

एक बंदीग्रह के रूप में इसका मक़ान है

अल्लाह और राम में करते है ये फ़रक

एसे ही बचे अब यहाँ पर ख़ानदान है

वैसे तो बातें करता ये महिला सम्मान की

पर लांछन लगाता इनपर ये इससे अंजान है

एक कुँए के मेंढक जैसी सोच है इनकी

सब इसी घेरे में हो इसका ये अरमान है

ना देखता क़सूरवार ये ना देखता नादान है

बिना सोचे समझे ये कर देता लहलुहान है!


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