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Sahil Hindustaani

Abstract

3  

Sahil Hindustaani

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अश'आर

अश'आर

4 mins
326


जाने क्यूँ उनकी मुस्कुराहट का तलबग़ार रहता हूँ मैं

जबकि हर बार वो मुझे घायल कर जाती है

ग़ज़ल जैसे सँवारी हुई हो बयाज़ में

एसे सिमटी हुई आज वो चादर में

हाए! कितनी नसीबदार है ज़ुल्फ़ें तेरी

हरदम तेरे रुखसार जो चूमती है

तेरा नाम सुनकर ही, गुलाबी हो उठता हूँ

कैसे कहती मुझे फ़िर, 'तू प्यार नहीं करता'

तलब़ उट्ठी है आज शराब़ की मुझे

आ इधर कि तेरे लब़ों का लम्स लूँ

लम्स - छुअन

आह भरी उन्होंने जब पाँव पर पाँव फेरा

अच्छा है जान गए वो लुत्फ़ वस्ल का

सोचा ना था उनका लम्स भी पा सकूँगा

आज वो ही मेरी ज़ानू गर्म करते है

ज़ुल्फ़े बाँध आए है वो आज वस्ल को

अंजान है पल भर में ये खुल जाएगी

सोचता हूँ दिन - रात मैं उनके बारे में

फ़िर क्यूँ लोग कहते, " ये प्यार नहीं है "

कल एक बोसा लिया था उनका मैंने

जान गया तब मैं शराब़ का स्वाद

बोसा - किस

मासूमियत, शोख़ियां, हय़ा, सदाक़त से बना जिस्म उनका

बड़ी आसानी से वो मेरा क़त्ल कर गए 'साहिल'

तेरे ख़्वाब तेरे ख़याल और ज़िदगी क्या है

इक तेरी करुँ इबादत और ज़िदगी क्या है

क़ालीन मख़मली मेरा आज राख़ हो गया

तेरा जिस्म जो शबिस्तां में आ गया

तुझसे तुझ ही को माँगना मेरा काम हो गया

ज़ालिम तू मेरे लिए अल्लाह और राम हो गया

तेरे घर के चार फेरे क्या लगे ज़ालिम

लगा मक्का-मदीने का सफ़र तमाम हो गया

तेरा नाम ले लिया है मैंने ज़ालिम

अब उसका नाम क्यूँ लूँ भला

वो शोख़ हसीं अपने हुस्न का जाम लाया है

मेरे क़त्ल का मुकम्मल इंतिज़ाम लाया है

ज़ुबां पर उस ज़ालिम का नाम आ गया

बे मन से मंदिर जाता हूँ मैं अब

जन्नत जहन्नुम साथ देखे मैंने आज

उस ज़ालिम के दीदार जो हुए

शहर मेरा भी सुंदर हुआ करता था कभी

उन्होंनें आकर ये ताज भी छीन लिया

दूर रहकर ना शोख़ अदाओं से लुभाओ

दिल पर कितने चलते है खंज़र तुम क्या जानो

क्यूँ काफ़िर कहते हो हमे यारों

उनकी इबादत तो करता हूं

जानता नही था मैं अपनी क़ीमत

आपके बे-इंतहा प्यार ने बता दिया

इस क़दर छाई है तेरी ख़ुमारी मुझ पर

ख़ुदा से पहले तेरा नाम लेता हूं

ग़ज़लें मेरी इतनी अच्छी नही बनती अब

यानि तुम्हारी अदाओं में ही वो बात नही रही

तुझे सोचकर ही ग़ज़लें मेरी शानदार बनती है

सोच तू पास होती तो क्या होता

ये दुनिया तो मुझे यूँ ही गुनहगार कहती है

गुनाह तो तुझसे मिलने के बाद होंगे

उनसे मुलाक़ात को आया हूँ आज मैं

खुद को बर्बाद करने आया हूँ आज मैं

ना खंज़र ना तीर ना तलवार है उनके पास

फ़िर क्यों उन्हें देख घायल हो जाता हूँ

कुछ समय पहले देखा था उन्हे

तबसे खुद को ढूंढ रहा हूँ मैं

नाज़ था हमें ईमान पर कभी

उनके इक दीदार ने हमारा ग़ुरूर तोड़ दिया

जब से उस पर हुआ शब़ाब का आगाज़ है

और भी क़ायल करते उसके नियाज़ों - नाज़ है

आइनें घर के सारे तोड़ दिए है मैंने

मश्विरे को अब उनके पास जाती हूँ

यूँ छुप छुपकर तड़पाना अच्छा नही

सामने आकर मार ही डालो

आपकी हर बात सिर आँखों पर

इक बार कहकर तो देखिए

बेमानी वो ग़ज़लें मेरी जिनमें तेरा नाम नही

इक तुझको ही याद करूँ दूजा कोई काम नही

एक मय़ का सागर बहता उनकी आँखों में

देती शराब का सुरूर आँखों से आखों में

ध्यान रखाकर अपना तू मेरे ज़ालिम

कि तू ही मेरी क़ायनात है

चाँद, घटाएँ, शब़नम, तारें या कोयल की हो कू-कू

सारे फ़ीके पड़ जाते जब सामने आती तू

आ कभी मुझसे भी तू मुलाक़ात कर ज़ालिम

मुझे भी कभी, जीने का मौक़ा दे दे

ज़िंदा लाश की तरह जी रहा हूँ मैं

मेरी साँसें धड़कनें नींदें सब उनके पास है

‌दोनों ओर से कब तक उतरता रहूँ मैं

आधा बिस्तर काबिज़ करने आजा तू

हैरान हूँ ज़िदा कैसे हूँ

मेरी साँसें धड़कनें तो उनके पास है

कल वो नाजनीं फ़िर निकली थी घर से

फ़िर बताया नहीं कितनों का क़तल कर आई है

इक मेरा चाँद है सबसे उजला

बाँकि दुनिया में कहने को

मेरे ख़्वाबों ख़यालों में तुम ही तो हो हरदम

तन्हा होकर भी मैं तन्हा महसूस नहीं करता

लबों से लब़ आज सिलने दो

सूखे होठों की प्यास बुझाने दो

संगे मरमर से तराशा है बदन उसका

फ़िर भी नहीं नाज़, है सदाक़त, रहती सरल

सीधा साधा था मैं कभी ज़ाहिद था कभी

उनकी नशीली आँखों ने हमे काफ़िर बना दिया

मेरी क़लम क़लम नहीं तेरा जादू है ज़ालिम

जो रोज़ एक नई ग़ज़ल मुझसे लिखवाती है

जब कभी घर से वो नाज़नीं आती है निकल

हो जाते है न जाने कितनों के क़तल

कब्ज़ा कर बैठे है वो मेरे दिल पर

और कोई! अब ये सोचना भी हराम है


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