शायरियां
शायरियां
जब से उस पर हुआ शब़ाब का आगाज़ है
और भी क़ायल करते उसके नियाज़ों नाज़ है
आइनें घर के सारे तोड़ दिए है मैंने
मश्विरे को अब उनके पास जाती हूँ
यूँ छुप छुपकर तड़पाना अच्छा नही
सामने आकर मार ही डालो
आपकी हर बात सिर आँखों पर
इक बार कहकर तो देखिए
बेमानी वो ग़ज़लें मेरी जिनमें तेरा नाम नही
इक तुझको ही याद करूँ दूजा कोई काम नही
एक मय़ का सागर बहता उनकी आँखों में
देती शराब का सुरूर आँखों से आखों में
ध्यान रखाकर अपना तू मेरे ज़ालिम
कि तू ही मेरी क़ायनात है
चाँद, घटाएँ, शब़नम, तारें या कोयल की हो कू-कू
सारे फ़ीके पड़ जाते जब सामने आती तू
आ कभी मुझसे भी तू मुलाक़ात कर ज़ालिम
मुझे भी कभी, जीने का मौक़ा दे दे
ज़िंदा लाश की तरह जी रहा हूँ मैं
मेरी साँसें धड़कनें नींदें सब उनके पास है
दोनों ओर से कब तक उतरता रहूँ मैं
आधा बिस्तर काबिज़ करने आजा तू
हैरान हूँ ज़िदा कैसे हूँ
मेरी सा
ँसें धड़कनें तो उनके पास है
कल वो नाजनीं फ़िर निकली थी घर से
फ़िर बताया नहीं कितनों का क़तल कर आई है
इक मेरा चाँद है सबसे उजला
बाँकि दुनिया में कहने को
मेरे ख़्वाबों ख़यालों में तुम ही तो हो हरदम
तन्हा होकर भी मैं तन्हा महसूस नहीं करता
लबों से लब़ आज सिलने दो
सूखे होठों की प्यास बुझाने दो
संगे मरमर से तराशा है बदन उसका
फ़िर भी नहीं नाज़, है सदाक़त, रहती सरल
सीधा साधा था मैं कभी ज़ाहिद था कभी
उनकी नशीली आँखों ने हमे काफ़िर बना दिया
मेरी क़लम क़लम नहीं तेरा जादू है ज़ालिम
जो रोज़ एक नई ग़ज़ल मुझसे लिखवाती है
जब कभी घर से वो नाज़नीं आती है निकल
हो जाते है न जाने कितनों के क़तल
ता शब़ शोलें शबिस्ता में और कुछ पता नहीं
किसके सीने पर किसका सीना कुछ पता नहीं
आओ आज हम मिलकर धर्मभ्रष्ट करे
फ़ासलें जो दरम्यां है दूर करे
जाने क्यूँ उनकी मुस्कुराहट
का तलबग़ार रहता हूँ मैं
जबकी हर बार वो
मुझे घायल करती है।