रश्क़
रश्क़
एक इल्तिहाब में जलाने लगी है अब चीज़ें
तेरे मेरे बीच जो फ़ासलें बढ़ाने लगी है
अपने ही घरवालों से जलने लगा हूँ मैं
तेरे साथ वक़्त वो गुज़ारते जो है ज़ालिम
नही चाहता अब मैं आसमां से बूँदे गिरे
तेरे मख़मली जिस्म का लम्स जो पाती है
लटों से तेरी रश्क़ होने लगा है मुझे
मेरा हक़, तेरे रुख्सारों पर, वो ले गई
बिंदी, चूड़ी, पायल, झुमके तेरे अच्छे नहीं लगते
मुझसे ज़्यादा तेरे बदन को वो जो चूमते हैं।