कविता -मजदूर
कविता -मजदूर
कौन है ये परेशान हर तरफ भटकता मारा मारा
भूख से बेहाल, पसीने से तरबतर, पैर में छाले है
और काम करते खून का पानी बनाकर दुनिया बनाने वाले ये कौन है?
दो जून की रोटी के लिए सुबह से शाम तक
तपती दोपहरी में सूरज की किरणों को ललकारता कौन है?
न अपनी फिक्र नहीं शरीर की चिंता थोड़ी
फ़टे कपड़ों में जी लेता है कम खाकर पानी पीकर पेट भर लेता है वो कौन है ?
कमर में एक कपड़े से बांधे हुए पेट में बच्चा लिए सर पर रेत ईंटें ढोती महिला कौन है?
मजदूरी से दुनिया का आशियाना बनाने वाले
खुद की ज़िन्दगी में भटकाव बस यहां से वहाँ चलते रहे वो कौन है ?
अपने दर्द को हँसकर भुला देते है जो पूरी दुनिया का भार अपने कंधे उठा लेते है ये लोग कौन है
भूखे प्यासे रहकर महीनों तक तपती धूप में
1000 मिल लम्बे रास्तों को पैरो से माप डाला हँसकर वो कौन है l
