शरणार्थी ( एक अनसुना किस्सा)
शरणार्थी ( एक अनसुना किस्सा)
उस रोज़ हमारे मुल्क में हालात कुछ ठीक न थे,
चारों ओर बस दंगे और झुलसते मकान थे।।
फरमान जारी हो चुका था,
हमें अब ये मुल्क छोड़ कर जाना था,
कहाँ जाए,
किस दर पर मदद की गुहार लगाए।।
उस रोज़ हमारे मुल्क में हालात कुछ ठीक न थे,
चारों ओर बस दंगे और झुलसते मकान थे।।
इंसानियत की लगाई उस आग में हमारा सब जल चुका था,
जो बचा था हमने उसे अपनी गठरी में रख लिया था,
चलते चलते हम काफी दूर आ गए,
शरण की आस में हम पड़ोसी मुल्क में आ गए।।
उस रोज़ हमारे मुल्क में हालात कुछ ठीक न थे,
चारों ओर बस दंगे और झुलसते मकान थे।।
सर पर छत हम खो चुके थे,
अपनी रोज़ी रोटी अपनी पहचान भी हम खो चुके थे,
अपनी मिट्टी से हमारा अब नाता टूट गया,
और हमारी नई पहचान "शरणार्थी" शब्द बन गया।।
उस रोज़ हमारे मुल्क में हालात कुछ ठीक न थे,
चारों ओर बस दंगे और झुलसते मकान थे।।
इंसान की बनाई सरहदों ने मुल्कों को बाटा है,
इन्हीं सरहदों पर खड़ा एक शरणार्थी एक सवाल पूछ रहा है,
क्यूं हमारी खुद की पहचान धूल में ओझल हो गई,
तबाही के तांडव ने लाखों जिंदगी दो राहें पर ला खड़ी कर दी।।