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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत -८९ ; ऋषभदेव जी का राज्यशासन

श्रीमद्भागवत -८९ ; ऋषभदेव जी का राज्यशासन

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शुकदेव जी कहें, हे राजन्

नाभिनन्दन जन्म से ही युक्त थे

भगवान विष्णु के जो हैं होते

वज्र, अंकुश आदि चिन्हों से।


समता, राजनीति, वैराग्य, ऐश्वर्य

महाविभूतियों के कारण उनका

प्रजा में बहुत मान था

प्रभाव बढ़ता जाता था उनका।


मंत्री, प्रजा, ब्राह्मण और देवता

ये अभिलाषा वो करने लगे

कि महाराज नाभि के पुत्र यह

इस पृथ्वी का ये शासन करें।


तेज, बल, यश, पराक्रम

और देखकर शूरवीरता

नाभि ने उन्हें श्रेष्ठ जानकर

ऋषभ तब उनका नाम रखा दिया।


एक बार भगवान इंद्र ने

ईर्ष्या वश वर्षा नहीं की थी

तब ऋषभदेव ने योगमाया से

राज्य पर वर्षा कर दी थी।


महाराज नाभि भी खुश थे

जो इच्छा, पुत्र पाया वैसा

वो देखकर सुख मानते

श्रेष्ठ पुत्र पाकर उन जैसा।


जब उन्होंने देखा ये कि

प्रजा, मंत्री सभी चाहें ये

राज्याभिषेक कर दिया उनका

धर्म मर्यादा की रक्षा के लिए।


पत्नी मेरुदेवी के सहित नाभि तब 

बद्रिकाआश्रम को चले गए 

नर नारायण की आराधना करते हुए 

उन्हीं में फिर वो लीन हो गए।


अपने देश अजनाभखण्ड को 

कर्मभूमि अपनी मान लिया 

भगवान ऋषभदेव ने फिर 

कुछ काल गुरूकुल में वास किया।


फिर गुरुदेव की आज्ञा पाकर 

गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया 

इंद्र की दी हुई उनकी कन्या 

जयंती से था विवाह किया।


अपने ही समान गुण वाले 

सौ पुत्र उत्पन्न किये थे 

उनमें महायोगी भरत जी 

सबसे बड़े और अधिक गुणवान थे।


अजनाभखण्ड जो उनका राज्य था 

उन्हीं भरत के ही नाम से 

लोग वहां उस भू भाग को 

भारतवर्ष कहने लगे थे।


भरत से छोटे नौ राजकुमार जो 

बाकी भाइयों से वो श्रेष्ठ थे 

उनसे छोटे और नौ भाई 

वो बड़े भागवद्भक्त थे।


बाकी इक्यासी पुत्र जयंती के 

पिता की आज्ञा मानने वाले 

निरंतर यज्ञ करने वाले वो 

शुद्ध होकर वो ब्राह्मण हो गए।


ऋषभदेव ईश्वर का ही रूप थे 

तो भी समस्त कर्म करते हुए 

काल अनुसार धर्म का आचरण किया 

लोगों को शिक्षा दी उन्होंने।


वेदों के गूढ़ रहस्य को 

पूरी तरह जानें वो फिर भी 

उसी विधि से प्रजा पालन करें 

जो ब्राह्मणों की बतलाई हुई।


महापुरुष जैसा आचरण करें 

जिससे लोग भी वैसा करते 

शिक्षा देने के लिए प्रजा को 

साम, दानादि का अनुसरण थे करते।


उन्होंने अपने शासन काल में 

बड़े बड़े कई यज्ञ किये थे 

राज्य में सभी लोग सुखी थे 

और सभी दोष रहित थे।


एक बार घूमते घूमते 

ब्रह्मव्रत देश में वो पहुंचे 

प्रजा के सामने पुत्रों को शिक्षा दी 

ब्रह्मऋषिओं की सभा में।



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