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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत -८३; पुरंजनपुरी पर चण्डवेग की चढ़ाई और कालकन्या का चरित्र

श्रीमद्भागवत -८३; पुरंजनपुरी पर चण्डवेग की चढ़ाई और कालकन्या का चरित्र

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नारद जी कहें, इस प्रकार से

वह सुंदरी अनेकों नखरों से

पुरंजन संग विहार करने लगी

पूरी तरह उसे वश में करके।


मद से छका राजा पुरंजन भी

पड़ा रहता था वो शय्या पर

सिर स्त्री की भुजा पर रखकर

जीवन का परम फल उसको जानकार।


अज्ञान में आवृत होने के कारण

आत्मा का कोई ज्ञान न रहा

कामातुर चित हो गया उसका

रमणी के साथ विहार करने लगा।


पुरंजनी से ग्यारह सौ पुत्र

और एक सौ दस कन्या हुईं

सभी गुणों में संपन्न थीं वो सब

पौरंजनी नाम से विख्यात हुईं।


राजा पुरंजन की लम्बी आयु का

आधा भाग निकल गया ऐसे

अपने पुत्रों का विवाह भी कर दिया

उन सब के भी सौ सौ पुत्र हुए।


पांचाल देश में फैल गया था

पुरंजन का सारा वंश ये

फिर भोगों की कामना से

अनेकों यज्ञों की दीक्षा ली उन्होंने।


तरह तरह की पशु बलि दी

जीवनभर कुटुम्भ पालन में व्यस्त रहा

अंत में वृद्धावस्था आ गयी

समय का कुछ पता ही न चला।


नारद जी कहें, एक गंधर्वराज है 

चण्डदेव उसका नाम है 

तीन सौ साठ गन्धर्व साथ में 

उतनी ही गन्धर्वीयां भी हैं। 


बारी बारी से चक्कर लगाकर 

नगरों को लूटती रहती हैं 

भोग विलास की सामग्री 

जहाँ पर भरी पूरी रहती है। 


चंडदेव के अनुचरों ने जब 

घेरा पुरंजन की नगरी को 

पांच फन वाले सर्प प्रजगर ने 

युद्ध कर रोका उन सब को। 


युद्ध चला ये सौ वर्ष तक 

उन गन्धर्व - गन्धर्वीयोन से उसका 

तब सर्प को बलहीन हुआ देख 

पुरंजन को हुई थी चिंता। 


उन्ही दिनों एक काल की कन्या 

घूम रही वर की तलाश में 

त्रिलोकी में भटकती रही पर 

स्वीकार उसे किया न किसी ने। 


बड़ी भाग्यहीना थी इसीलिए 

लोग उसे दुर्भगा कहते थे 

एक बार उसे वरा पुरु ने 

पिता को यौवन देने के लिए। 


काल कन्या दुर्भगा को 

अपनी इच्छा से ही वरा था 

इससे प्रसन्न होकर उसने उन्हें 

राज्य प्राप्ति का वर दिया था। 


नारद जी कहें हे राजन 

पृथ्वी पर आया एक दिन मैं जब 

ऐसे ही मैं विचार रहा था 

वो कन्या मुझे मिल गयी थी तब। 


ब्रह्मचारी वो जाने मैं हूँ पर 

मुझको थी वो वरना चाहे 

कामातुर होने के कारण 

सही से वो कुछ सोच न पाए। 


प्रार्थना असवीकार की मैंने 

इसीलिए कुपित हो गयी वो मुझपर 

शाप दिया, तुम अधिक देर तक 

ठहर सको न एक स्थान पर। 


निराश होकर वो मेरी और से 

मेरी सम्मति से फिर गयी वो 

यवनराज भय के पास और 

कहे उससे तुम मुझको वर लो। 


कालकन्या की बात को सुनकर 

यवनराज ने था उससे कहा 

देखकर योगदृष्टि से मैंने 

तेरे लिए पति निश्चित किया। 


करने वाली अनिष्ट तू सबका 

इसलिए अच्छी न लगे किसी को 

इसलिए कोई स्वीकार न करे 

और न वरे कोई है तुमको। 


प्रज्वार नाम का मेरा भाई है 

हम तीनों साथ में मिलकर 

सेना लेकर लोकों में विचरेंगे 

विजय कोई पा सके न तुझ पर। 


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