श्रीमद्भागवत -७३ ; महाराज पृथु का पृथ्वी पर कुपित होना
श्रीमद्भागवत -७३ ; महाराज पृथु का पृथ्वी पर कुपित होना
मैत्रेय जी कहें जब बन्दीजनों ने
बखान किया पृथु के गुणों का
उन्होंने तब प्रसन्न हो उनसे
उपहार देकर उनको संतुष्ट किया।
सभी ब्राह्मण जो बैठे थे वहां
उनका भी सत्कार किया था
विदुर जी पूछें, धरती ने क्यों
गौ रूप धारण किया था।
पूछें जब दूहा पृथ्वी को
कौन बना था बछड़ा उनका
और दूध जिसमें दुहा वो
दूहने का पात्र क्या था।
पृथ्वी तो है ऊँची नीची
पृथु ने उसको समतल कैसे किया
और इंद्र उनके यज्ञ के
घोड़े को क्यों हर ले गया।
सनत्कुमार से ज्ञान प्राप्त कर
राजर्षि किस गति को प्राप्त हुए
अवतार हरि के उन पृथु का
पवित्र चरित्र सब मुझे सुनाएं।
इस प्रकार जब विदुर ने पूछा
प्रसन्न हो मैत्रेय जी सुनाएं
विधिपूर्वक राजयभिषेक किया
महाराज पृथु का ब्राह्मणों ने।
उन दिनों प्रजा थी भूख से मर रही
अन्नहीन हो गयी थी पृथ्वी
अपनी सब फरयाद लेकर तब
प्रजा राजा के पास आयी थी।
पृथु के पास आकर कहा कि
आप शरणागत की रक्षा करें
हम सब का कहीं अंत न हो जाये
भूख से, अन्न न मिलने से।
बहुत देर पृथु विचार करते रहे
सुनकर प्रजा का करून क्रन्दन
अंत में अन्नाभाव का कारण
जान लिया था अपने अंदर।
पृथ्वी ने अन्न और औषधिओं को
अपने भीतर छुपा लिया था
जब ये देखा अपनी बुद्धि से
उन्होंने फिर निश्चय किया था।
अत्यंत क्रोधित होकर पृथ्वी पर
उन्होंने अपना धनुष उठाया
पृथ्वी को लक्ष्य बनाकर
वाण धनुष पर था चढ़ाया।
जब शस्त्र उठाया उन्होंने
काँप उठी पृथ्वी थी डरकर
वहां से तब भागी थी पृथ्वी
गौ रूप अपना धारण कर।
यह देख था क्रोध आ गया
पृथु की आँखें लाल हो गयीं
उसके पीछे पीछे लगे रहे
जहाँ जहाँ पृथ्वी थी गयीं।
दिशा, विदिशा, स्वर्ग, अंतरिक्ष में
जहाँ भी वो दौड़कर जाती
पृथु को वो हथ्यार उठाए
अपने पीछे पीछे पाती।
पृथु से जो उसको बचाये
कोई न मिला, उसे कहीं भी
अत्यंत भयभीत हो, दुखी चित्त से
वो लौटी फिर पीछे को ही।
कहने लगी महाराज पृथु से
आप रक्षा करें प्रनियों की सभी
मैं दीन और निरपराध हूँ
रक्षा कीजिये आप मेरी भी।
आप धर्मज्ञ हो माने जाते
चाहते मुझे हो क्यों मारना
आप को ये शोभा न दे
किसी स्त्री का वध करना।
स्त्री कोई अपराध भी करे
साधारणजन भी न हाथ उठाएं
आप जैसे दीनवत्सल से
ये अपराध हो ही न पाए।
सुदृढ़ नौका के सामान हूँ मैं तो
जगत स्थित है मेरे आधार पर
जल के ऊपर कैसे रखोगे
प्रजा को, तुम मुझको तोड़कर।
पृथु ने तब कहा था पृथ्वी से
मेरी आज्ञा का उलंघन करे तू
यज्ञ का भाग तो लेती है पर
बदले में हमें, अन्न न दे तू।
प्रतिदिन हरी घास है खाती
दूध न देती अपने थन का
ऐसी दुष्टता करती है तू
इसलिए तुम्हे मैं मार डालूँगा।
अपने अंदर लीन कर लिया
ब्रह्मा जी ने जो बीज उत्पन्न किये
प्रजा मेरी है भूखी मर रही
बीजों को निकाले तू न गर्भ से।
निर्दयी हों अन्य प्रनिओं के प्रति
अपना ही पोषण करते जो
राजाओं को पाप न लगे मारने से
पुरुष हो वो या वो स्त्री हो।
बड़े क्रोध में राजा पृथु थे
कांपने लगी पृथ्वी ये देखकर
अत्यंत विनीत भाव से बोली
उनके सामने हाथ जोड़कर।
आप साक्षात् परमपुरुष हैं
सर्वदा रहित हैं राग द्वेष से
बार बार मैं नमस्कार करूं
विधाता आप सारे जगत के।
आश्रय जीवों का मुझे बनाया
ये सृष्टि भी रची आपने
अस्त्र शस्त्र ले आये मारने
अब मैं जाऊं किसकी शरण में।
आप सर्वथा स्वतन्त्र हैं
आप धर्मपरायण भी हैं
गोरूपधारणी मुझ पृथ्वी को
क्यों आप मारना चाहते हैं।
आदिवराह रूप में आप ही
बाहर लाये मुझे रसातल से
धराधर नाम पाया था आपने
मुझपर करकर ऐसे उद्धार ये।
प्रजा मेरे आश्रय जो रहती
उसकी रक्षा करने के लिए
दूध न देने के अपराध में
आप मुझे हैं मारना चाहते।
आपके भक्तों की लीला भी
न समझ सकते लोग हम
फिर आपकी लीलाओं का
उदेश्य क्या , कैसे समझें हम।