श्रीमद्भागवत -२८०; भगवान की पटरानियों के साथ द्रोपदि की बातचीत
श्रीमद्भागवत -२८०; भगवान की पटरानियों के साथ द्रोपदि की बातचीत
श्री शुकदेव जी कहते हैं परीक्षित
तब भगवान श्री कृष्ण ने
कुशल मंगल पूछी यदुवंशियों की
और जो सगे सम्बन्धी उनके।
यादव और कौरव कुल की स्त्रियाँ
कृष्ण लीलाओं का गान कर रहीं
द्रोपदि ने कृष्ण पत्नियों से कहा
‘ तुम अब मुझे बात कहो अपनी।
माया से लोगों का अनुकरण करते हुए
कैसे पाणिग्रहण किया तुम्हारा कृष्ण ने
रुक्मिणी जी कहें ‘ द्रोपदि जी, कृष्ण
नरपतियों के बीच से हर लाए मुझे।
मेरी तो ये अभिलाषा है
कि चरणकमल भगवान के
जन्म जन्म प्राप्त हों मुझे और
लगी रहूँ उन्ही की सेवा में ‘।
सत्यभामा ने कहा ‘ द्रोपदि जी,
मेरे पिता दुखी हो रहे थे
अपने भाई की मृत्यु से और
कलंक लगाया भगवान पर ये उन्होंने।
दूर करने को उस कलंक को
जामवन्त को हराया कृष्ण ने
मेरे पिता को लौटा दी
सयमंतक मणि लेकर फिर उससे।
मिथ्या कलंक से पिता डर गए मेरे
और समयंतक मणि के साथ में
कृष्ण के चरणों में समर्पित कर दिया
मुझको फिर मेरे पिता ने ‘।
जामवति ने कहा ‘ द्रोपदि जी
ऋक्षराज ज़ाम्ब्बान पिता मेरे
कृष्ण ही उनके सीतापति हैं
उनको पता नही था तब ये।
इसलिए कृष्ण से युद्ध करते रहे
और जब परीक्षा पूरी हुई
और जब ये जान लिया कि
कृष्ण ये हैं भगवान राम ही।
तब उन्होंने चरणपकड़ लिए और
सयमंतकमणि के साथ मुझे भी
समर्पित कर दिया श्री कृष्ण को
चाहूँ मैं अब दासी बनी रहूँ इनकी।
कालिन्दी ने कहा ‘ द्रोपदि जी
भगवान को जब मालूम हुआ कि
मैं तपस्या कर रही हूँ
चरणों का स्पर्श करने को उनके।
अपने सखा अर्जुन के साथ में
यमुना तट पर आए थे वे
और मुझे स्वीकार कर लिया
पत्नी बना लिया अपनी मुझे।
मित्रवृंदा ने कहा ‘ द्रोपदि जी
स्वयंवर हो रहा था मेरा
सब राजाओं को जीत लिया
भगवान कृष्ण ने आकर वहाँ।
मुझे द्वारका में ले गए
और अब मैं चाहती हूँ ये
कि उनके पाँव पखारने का
जन्म जन्म सौभाग्य मिले मुझे ‘।
सत्या ने कहा ‘ द्रोपदि जी
मेरे पिता ने मेरे स्वयंवर के लिए
सात बैलों को नथने की शर्त रखी
कृष्ण ने नथ लिया खेल खेल में।
और राजा आए जो वहाँपर
उनको भी जीत लिया था
मुझे द्वारका ले आए फिर
सेवा करूँ उनकी, मेरी अभिलाषा ‘।
भद्रा ने कहा ‘ द्रोपदि जी
कृष्ण, पुत्र मेरे मामा के
मेरा चित आसक्त हो गया
था उनके चरणकमलों में।
मेरे पिता को जब पता चला ये
समर्पित कर दिया कृष्ण को मुझे
चाहती हूँ उनके चरणकमलों का
प्राप्त हो सर्वदा संस्पर्श मुझे ‘ ।
लक्ष्मणा ने कहा ‘ रानी जी
कृष्ण की लीलाएँ सुन नारद जी से
चित भगवान चरणों में लगा लिया
सोचा कि वरण करूँगी बस उन्हें।
जैसे आपके पिता जी ने किया था
मेरे पिता ने भी मेरे स्वयंवर में
मत्स्य भेद का आयोजन किया
ढका हुआ वो मत्स्य बाहर से।
जल में परछाई दीखती बस
आए वंशधर राजा बहुत से
जरासंध, शिशुपाल आदि तो
मछली की स्थिति भी ना जान सके।
अर्जुन ने परछाई तो देख ली
मछली कहाँ, ये जान भी लिया
लक्ष्य भेद ना कर सके वे
यद्यपि उन्होंने वाण छोड़ा था।
तब भगवान ने धनुष उठाकर
परछाई देखकर वान मारा था
मत्स्य जब नीचे गिर गया
कृष्ण को मैंने डाली वरमाला।
वहाँ बैठे राजा चिढ़ गए
रथ पर बैठा लिया भगवान ने मुझे
रणभूमि में कुछ ढेर हो गए
रणभूमि छोड़ भागे बहुत से ‘।
‘ रानी जी, हमने पूर्वजन्मों में
ज़रूर कोई तपस्या की होगी
जो इस जन्म में हम सब
भगवान कृष्ण की दासी हुईं ‘।
सोलह हज़ार पत्नियों की और से
कहा द्रोपदि से रोहिणी जी ने
‘ राजाओं को जीत लिया कई
भोमासुर ने दिग्विजय के समय।
उनकी कन्याओं, हम लोगों को
बंदी बनाकर रखा उसने
भगवान ने हराकर उसको युद्ध में
हम लोगों को छुड़ा लिया उससे।
पाणिग्रहण किया तब हम सबका
हम लोग तो सदा सर्वदा
भगवान जो संसार से तारें
चरणकमलों का चिंतन करें उनका।
जो हम लोग कुछ चाहती हैं तो
बस हम इतना ही चाहें
कि अपने प्रियतम प्रभु के
चरणकमल सिर पर वहन करें ‘।