STORYMIRROR

Ajay Singla

Classics

4  

Ajay Singla

Classics

श्रीमद्भागवत-२६१; नृग राजा की कथा

श्रीमद्भागवत-२६१; नृग राजा की कथा

3 mins
457


श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित

एक दिन साम्ब, प्रद्युमण आदि यदुवंशी

खेलने गए उपवन में, वहाँ

खेलते खेलते प्यास लग गयी।


इधर उधर जल खोजते

एक कुएँ के पास में गए

एक विचित्र सा जीव वहाँ था

जल नही था उस कुएँ में।


पर्वत के समान आकार उसका

देखने में एक गिरगिट था 

आश्चर्य की सीमा ना रही

जब सबने था उसको देखा।


हृदय उनका करुणा से भर गया

उसे निकालने का प्रयत्न करने लगे

परन्तु रस्सियों से बांधने पर भी

उस जीव को निकाल ना सके।


यह आश्चर्यजनक वृतान्त उन्होंने

श्री कृष्ण को जाकर सुनाया

श्री कृष्ण आए वहाँ, उसे

एक हाथ से बाहर निकाल लिया।


श्री कृष्ण का स्पर्श होते ही

गिरगिट रूप जाता रहा उसका

स्वर्गीय देवता के रूप में

वह जीव परिणित ही गया।


यद्यपि कृष्ण ये जानते थे कि

गिरगिट योनि क्यों मिली उसे

फिर भी उस दिव्य पुरुष को

भगवान ने पूछा था ये।


‘ महाभाग, क्या कोई देवता तुम

बहुत ही सुंदर रूप तुम्हारा

कौन हो, अपने किस कर्म के फल से

इस योनि में तुम्हें आना पड़ा ‘।


श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित

भगवान ने इस प्रकार पूछा तो

दिव्य पुरुष ने उनको प्रणाम किया

और उनसे कहा ‘ हे प्रभो !


इक्ष्वाकु का पुत्र राजा नृग हूँ

और दानी था मैं बड़ा ही

आप को सब वृतान्त सुनाऊँ

हालाँकि आपसे कुछ छिपा नहीं।


पृथ्वी के जितने धूलिकण हैं

जितने तारे हैं आकाश में

वर्षा में जितनी धाराएँ गिरतीं

उतनी गोएँ दान की मैंने।


न्याय के धन से प्राप्त किया उन्हें

सब गोओं के साथ बछड़े थे

ब्राह्मणकुमार जो तपस्वी, वेदज्ञानि

गोएँ दान करता था मैं उन्हें।


अनेकों यज्ञ किए मैंने और

कुएँ, बावली आदि बनवाए

मेरी और गोओं में आ मिली

एक दिन दान की हुई एक गाय।


मुझे इस बात का पता ना चला

इसलिए मैंने अनजाने में उसे

दूसरे ब्राह्मण को दान कर दिया

चला गया वो उसे लेकर वहाँ से।


तब उस गाय का असली स्वामी जो

कहने लगा ‘ मेरी है ये गाय तो

क्योंकि इसको दान कर रखा

राजा ने पहले से ही मुझको।


आपस में झगड़ने लगे ब्राह्मण दोनों

और फिर मेरे पास आए वो

बात सुनकर दोनों की फिर

धर्म संकट में पड़ गया मैं तो।


दोनों को विनय की मैंने

कि एक लाख गोएँ मैं दूँगा

और यह गाय मुझे दे दो

मैं तो सेवक तुम लोगों का।


अनजाने में ये अपराध हुआ मुझसे

आप मुझपर कृपा कीजिए

घोर नरक में गिरने से और

इस घोर कष्ट से बचा लीजिए ‘।


‘ मैं इसके बदले में कुछ नहीं लूँगा ‘

यह कहकर गाय का स्वामी चला गया

लाख से भी ज़्यादा गाय को

दूसरे ने भी लेने से मना किया।


देवाधिदेव, इसके बाद फिर

आयु समाप्त होने पर मेरी

यमराज के पास पहुँचा तो

यमराज ने ये बात थी पूछी।


‘राजा तुम पहले अपने पाप का

फल भोगना चाहते या पुण्य का

तुम्हारे दान के फलस्वरूप तुम्हें

तेजस्वी लोक एक प्राप्त होगा ‘।


तब मैंने यमराज से कहा

पाप का फल भोगूँ मैं पहले

उसी क्षण यमराज ने कहा

गिर जाओ तुम यहाँ से।


ऐसा कहते ही मैं गिरने लगा

गिरते समय गिरगिट हो गया

प्रभो, ब्राह्मणों का सेवक और

उदार, दानी आपका भक्त था।


बड़ी अभिलाषा थी मुझे कि

दर्शन करूँ मैं आपका कभी

पूर्वजन्म की स्मृति मेरी

इस जन्म में भी नष्ट ना हुई।


परमात्मा हैं आप तो

मेरे सामने कैसे आ गए

आप का दर्शन तो तब होता है जब

संसार बंधन से छुटकारा मिले।


देवताओं के लोक में जा रहा मैं

आप मुझे आज्ञा दीजिए

आपके चरणकमलों में लगा रहे

मेरा चित, ये कृपा कीजिए।


राजा नृग ऐसा कहकर फिर

विमान पर सवार हो गए

उनके चले जाने पर

भगवान ने कहा यदुवंशियों से।


शिक्षा देने के लिए क्षत्रियों को, कहा 

‘ ब्राह्मण का धन ना पचा सके कोई

चाहे कोई तपस्वी बहुत बड़ा

या कोई अभिमानी राजा ही।


हलाहल विष जो कोई ले ले

चिकित्सा होती है उसकी तो

ब्राह्मण का धन तो परम विष है

उपाय, औषध उसका कोई नहीं।


विष तो प्राण लेता बस

उसका ही, जो उसे खाता

और उस विष की आग जो

बुझाई जा सकती जल के द्वारा।


परंतु ब्राह्मण के धन रूप अग्नि से

पैदा होती है आग जो

समूल नाश कर देती है

और जला देती सारे कुल को वो।


घमंड में भरकर जो राजा

ब्राह्मणों का धन हड़प करना चाहते

समझना चाहिए कि वो जानबूझकर

नरक जाने का रास्ता साफ़ कर रहे।


धन छीने जब कोई ब्राह्मण का

उसके रोने पर उसके आंसुओं से

धरती के जितने धूलिकण भीगते

उतने वर्षों तक छीनने वाले के।


वंशजों को और उसको भी

कुम्भीपाक नरक भोगना पड़ता

इसलिए ब्राह्मणों के धन को

भूल कर भी कोई छीने ना।


ब्राह्मण यदि कोई अपराध करे

तो भी उससे द्वेष मत करो

तुम्हें गालियाँ भी वो दे तो

तुम सदा उसे नमस्कार करो।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Classics