श्रीमद्भागवत -२० भगवान के विराट रूप का वर्णन
श्रीमद्भागवत -२० भगवान के विराट रूप का वर्णन


शुकदेव जी कहें, हे परीक्षित जी
उत्तम प्रश्न किया है आपने
गृहस्थों की सारी उम्र बीते हैं
काम धन्धों में वो उलझे रहें।
रात बीतती है नींद में
दिन बीते पालन पोषण में
संसार में स्त्री पुत्र अदि जो
सच पूछो तो कुछ नहीं ये।
जो अभय पद पाना चाहें
नित कृष्ण का भजन करें वो
कीर्तन कर स्मरण करें उन्हें
लीलाओं का श्रवण करें वो।
मनुष्य जन्म का यही लाभ है
ज्ञान भक्ति और धर्म से
जीवन को ऐसा बनाओ
मृत्यु समय प्रभु स्मृति बनी रहे।
द्वापर का जब अंत हो रहा
भगवत सुनाएं मुझे पिता मेरे
निर्गुण रूप में मेरी पूरी निष्ठा
पर कृष्ण लीला आकर्षित करे।
इसी कारण अध्यन किया मैंने
कृष्ण की लीला में रस पाऊं
तुम भगवान के परम भक्त हो
वो सब मैं अब तुम्हे सुनाऊँ।
किसी वस्तु की इच्छा या
प्राप्त करना चाहे कोई मोक्ष
भगवन के नामों का संकीर्तन
उनको दिलाता है ये सब कुछ।
घड़ी, दो घड़ी का मनन भी
जीवों का कल्याण है करे
राजश्री खटवांग एक क्षण में
परमपद को प्रापत हो गए।
पता चला कि मृत्यु निकट है
क्षण में सब कुछ त्याग दिया था
तुम्हारे तो सात दिन बाकि
उन्हें क्षण में ही मोक्ष मिला था।
मृत्यु का समय जब आये
मनुष्य को नहीं घबराना चाहिए
वैराग्य से काटे शरीर के बंधन
ममता को त्यागना चाहिए।
घर से निकल, पवित्र स्थान पर
आसन लगा बैठ जाये वो
इन्द्रियों को विषयों से हटाए
अ उ म का मन में जाप करे वो।
रजोगुण या तमोगुण से अगर
मन न लगे भजन करने में
योगधारणा से वश में करे उसे
लगाए मन को प्रभु चरणों में।
परीक्षित पूछें शुकदेव जी से ये
धारणा किस साधन से की जाये
किस वास्तु से, किस प्रकार से
क्या उसका स्वरुप बताएं।
शुकदेव जी बोले, हे परीक्षित जब
इन्द्रियों पर विजय हो जाये
बुद्धि द्वारा मन को भगवान के
स्थूल रूप में तब लगाएं।
जल,अग्नि, वायु, आकाश
अहंकार,महत्तत्व, प्रकृति
सात आकर्षणों में घिरे विराट पुरुष
इसी की ही धारणा की जाती।
पाताल विराट पुरुष के तलवे
एडीयां और पंजे, रसातल हैं
एड़ी के ऊपर गाँठ महातल
पैरों के वो पिंडे तलातल हैं।
नाभि को आकाश कहते हैं
छाती ही स्वर्गलोक है
सहस्र सिर उस भगवान के
मस्तक समूह ही सत्य लोक है।
इन्द्रादि देवता भुजाएं
दिशाएं उस रूप के कान हैं
शब्द उनकी श्रवनन्द्रियां
अश्वनी कुमार नासिका सामान हैं।
गंध उनकी घ्राणेन्द्रियां हैं
मुख उनका धधकती आग है
अंतरिक्ष नेत्र हैं उनके
दोनों पलकें दिन और रात हैं।
तालू जल है,जीभा रस है
वेद ब्रह्मरन्ध्र हैं, यम दाढ़ें हैं
स्नेह उनके दांत हैं और
माया को मुस्कान कहते हैं।
ऊपर का होंठ लज्जा है
लोभ उनका नीचे का होंठ है
प्रजापति मूत्रेन्द्रियां उनकी
धर्म स्तन, अधर्म पीठ है।
मित्रावरुण अंडकोष हैं
समुन्द्र ही उनकी कोख है
पर्वत सारे उनकी हड्डियां
नाड़ियां नदिआं, वृक्ष रोम हैं।
प्रबल वायु उनकी शवास है
बादलों को केश मानते
काल उनकी ही चाल है
संधया ही वस्त्र हैं उनके।
मूल प्रकृति उनका ह्रदय है
चन्द्रमाँ मन है उनका
महतत्व ही उनका चित है
इंद्र ही अहंकार है उनका।
घोड़े, ऊंठ और हाथी नख हैं
मृग, पशु कटिप्रदेश में रहते
पक्षी उनके रचना कौशल हैं
स्वयंभू मुनि को बुद्धि कहते।
मनु की संतान मनुष्य है जो
वहां उनका निवासस्थान है
गन्धर्व, अप्सराएं स्वरों की स्मृति
दैत्य उनके ही वीर्य हैं।
ब्राह्मण मुख हैं, क्षत्रिय भुजाएं
वैश्य जंघा हैं, शूद्र चरण हैं
यही विराट पुरुष का स्वरुप है
यज्ञ उनके धर्म कर्म हैं।
इसी स्वरुप में स्थिर करो मन को
परमात्मा सबका एक वही है
आसक्ति किसी और से ना करो
पतन करती ये आसक्ति है।