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Ajay Singla

Classics

4  

Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत -१५५ ; समुंद्रमंथन का आरम्भ और भगवान शंकर का विषपान

श्रीमद्भागवत -१५५ ; समुंद्रमंथन का आरम्भ और भगवान शंकर का विषपान

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श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित

देवताओं और असुरों ने

सम्मिलित किया वासुकि को

ये वचन देकर फिर उन्हें।


अमृत प्राप्त हो जो समुन्द्र मंथन से

हिस्सा रहेगा उनका भी उसमें

वासुकि की नेति बनाई

उसके बाद फिर उन लोगों ने।


मंदराचल पर लपेट कर उन्हें

बड़े उत्साह और आनंद से

समुन्द्र मंथन प्रारम्भ कर दिया

अमृत को पाने के लिए।


पहले पहल अजित भगवान् जी

वासुकि के मुख की और लग गए

और उधर मुख की और ही

जुट गए देवता भी इसीलिए।


परन्तु भगवान की ये चेष्टा

पसंद न आई उन दैत्यों को

कहें कि पूंछ हम नहीं पकड़ेंगे

सांप का अशुभ भाग है पूंछ तो।


शास्त्रों का अध्ययन हमने किया

हमारा जन्म हुआ ऊंचे वंश में

देवताओं से किस बात में कम हैं

बड़े बड़े काम हमने किये।


यह कहकर वो दैत्य सभी 

चुपचाप एक और खड़े हो गए 

उनकी यह मनोवृति देखकर 

मुस्कुराकर फिर भगवान ने।  


देवताओं के साथ पूंछ पकड़ ली 

वासुकि का मुँह छोड़ कर 

देवता असुर समुद्र मंथन करने लगे 

अपना अपना स्थान निश्चित कर।  


बलवान देवता और असुर वहां 

समुद्र मंथन तब करने लगे 

पर पकडे रहने पर भी उनके 

डूबने लगा मंदराचल समुद्र में।  


भार की अधिकता के कारण ही 

और कोई आधार भी न नीचे उसके 

यह देख मन उनका टूट गया 

देवता, दैत्य उदास हो गए।  


भगवान ने जब देखा कि 

करतूत विघ्नराज की है ये 

निवारण का उपाय सोचकर 

कच्छप रूप फिर धरा उन्होंने।  


अत्यंत विशाल एवं विचित्र 

कच्छप ने फिर जल में प्रवेश किया

भगवान की शक्ति अनंत है 

मंदराचल को ऊपर उठा लिया।  


देख के ये फिर उठ खड़े हुए 

देवता, दैत्य समुद्र मंथन को 

एक लाख योजन फैली पीठ पर 

प्रभु धारण किये मंदराचल को।  


देवता और असुरों के बल से 

घूमने लगा मंदराचल पीठ पर 

जान पड़ता कोई पीठ खुजला रहा 

कच्छप भगवान को पर्वत का चक्कर।  


समुद्र मंथन संपन्न करने को 

शक्तिबल बढ़ाते हुए असुरों का 

भगवान ने उन असुरों में 

असुर रूप से प्रवेश किया।  


वैसे ही देवताओं में उन्होंने 

प्रवेश किया देवरूप से 

निद्रा के रूप में प्रवेश किया था 

उन्होंने वासुकि नाग में।  


दूसरे पर्वत के समान बनकर फिर 

ऊपर मंदराचल पर्वत के 

उसे दबाकर स्थित हो गए 

सहस्रबाहु भगवान अपने हाथों से।  


ब्रह्मा, शंकर, इन्द्रादि उस समय 

स्तुति करने लगे भगवान की 

आकाश से फिर उन्होंने 

प्रभु पर फूलों की वर्षा की।  


इस प्रकार पर्वत के ऊपर 

दबा रखने वाले के रूप में 

नीचे उसके आधार बनकर 

कच्छ के रूप में भगवान थे।  


देवताओं और असुरों के शरीर में 

थे वो उनकी शक्ति के रूप में 

और जिससे वासुकि को कष्ट न हो 

निद्रा के रूप में वे थे उसमें।  


मंदराचल पर्वत में भगवान वहां 

दृढ़ता के रूप में थे वे 

सबको शक्ति संपन्न कर दिया 

प्रवेश कर सभी और से।  


देवता असुर बड़े वेग से 

समुद्र मंथन करने लगे थे 

तब समुद्र और उसमें रहने वाले 

सारे जीव क्षुब्ध हो गए।  


नेत्र, मुख और शवासों से वासुकी के 

विष की आग निकलने लगी 

असुर निस्तेज हुए उसके धुंए से 

पोलोम, कालय, इल्वल और बलि।  


ऐसा जान पड़ता था जैसे 

झुलसे पेड़ हों दावानल में 

देवता भी उससे बच न सके 

तेज फीका पड़ गया लपटों से।  


यह देख भगवान की प्रेरणा से 

बादल वहां वर्षा करने लगे 

समुद्र की तरंगों को स्पर्श कर 

संचार शीतलता का किया वायु ने।  


समुद्र मंथन से देवता, असुरों के 

अमृत जब नहीं निकला तो 

तब अजित भगवान स्वयं ही 

समुद्र मंथन करने लगे वो।  


सांवला शरीर, सुनहरा पीताम्बर 

बिजली समान कुण्डल कानों में 

घुंघराले बाल सिर पर लहराते 

सुशोभित वनमाला गले में।  


वासुकि को अपने भुज दंडों से 

पकड़कर वो समुद्र मंथन करें 

मछली, मगर, सांप, कछुए सब 

भयभीत होकर ऊपर आ गए।  


इधर उधर भागने लगे वो 

मच्छ, ग्राह सब व्याकुल हो गए 

हलाहल नामक उग्र विष निकला 

मंथन से पहले पहल उसी समय।  


दिशा, विदिशा में, ऊपर नीचे 

सर्वत्र उड़ने, फैलने लगा 

इस असह विष से बचने का 

वहां कोई उपाय नहीं था।  


भयभीत हो सम्पूर्ण प्रजा, प्रजापति 

शरण में गए शंकर की 

कैलाश पर विराजमान वो 

साथ में बैठीं सती थीं।  


प्रजापतिओं ने प्रणाम किया 

और फिर उनकी स्तुति की 

कहें, हे आराध्य देव महादेव 

आएं हैं हम शरण आपकी।  


भस्म करने वाली त्रिलोकी को 

इस उग्र विष से रक्षा कीजिये 

जगद्गुरु हैं आप हमारे 

शरणागत की पीड़ा नष्ट कीजिये।  


आप जब समस्त प्रपंच से उपरत हो 

अपने स्वरूप में स्थित हो जाते 

तब उस स्थिति को आपकी 

हम सब शिव हैं कहते।  


सत्व, रज, तम तीन नेत्र आपके 

और प्रलय के समय विश्व ये 

जलकर है भस्म हो जाता 

आपके नेत्रों से निकली लपटों से।  


ध्यान मग्न रहे आप हैं ऐसे 

आपको इसका पता भी न चले 

प्रजा का ऐसा संकट देखा तो 

व्यथा हुई शिव जी के हृदय में।  


उन्होंने अपनी प्रिय सती से 

उस समय थी ये बात कही 

कितना बड़ा दुःख आन पड़ा है 

देखो देवी प्रजा पर मेरी।  


समुद्र मंथन से निकले हुए 

इस विष के कारण दुखी ये 

मेरा ये कर्तव्य है कि इनको 

निर्भय कर दूँ मैं इस कष्ट से।  


दूसरे प्राणियों की रक्षा के लिए 

अपने क्षण भंगुर प्राणों को 

उनके लिए बलि दे देते हैं 

सज्जन पुरुष होते हैं जो।  


इस लिए अभी इस विष को 

भक्षण करता हूँ मैं स्वयं ही 

जिससे मेरी प्रजा का कल्याण हो 

संकल्प ये लिया शिवशंकर ने वहीं।  


सती देवी को प्रस्ताव कर ऐसे 

शंकर तैयार हुए विष खाने को 

सती ने भी अनुमोदन किया 

उनका प्रभाव जानती थीं वो।  


उस तीक्ष्ण हलाहल विष को 

हथेली पर उठाया शंकर ने 

और भक्षण कर लिया उसको 

जल का पाप - मल ही था विष ये।  


अपना प्रभाव प्रकट कर दिया 

उस विष ने शंकर जी पर भी 

कंठ नीला पड़ गया उनका 

पर शंकर के लिए वो भूषण रूप ही।  


जब विषपान कर रहे शंकर 

हाथ से थोड़ा विष टपक पड़ा 

बिच्छु, सांप आदि विषैले जीव और 

विषैली औषधिओं ने उसे ग्रहण किया।  



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