श्राद्ध
श्राद्ध
परम्परा हो
पूजनीय हो
सांसे जब टूटे
तब तक साथ हमारा हो।
फिर मिलेंगे
उस चाहत के जहां में
एक दूजे का रिश्ता निभाने
चाहे जन्नत या दोज़क हो।
कहने तो तो
नश्वर है संसार
फिर क्यूँ डरता है इंसां
मौत के खौफ से।
अरे ! आत्मा
तू तो अमर है
कभी इस शरीर
तो कहीं दूजा है बसेरा।
फिर क्यूँ डरता है
अपने जीते जी
तू तो परमात्मा का अंश है
कर परित्याग इच्छा का।
दुनिया में जब तक थे
किसी ने न पहचाना तुझे
जैसे प्राण फूट पड़ें
तो श्राद्ध मनाया दुख भरे गमों से।
इतने पर भी मन न माना
कहा एक काम ज़रूरी है
गया बैठाने वापस आकर
भंडारा मजबूरी है।
इससे अच्छा होता कि जीते जी
कर लो प्रेम इंसानियत से
हर चाहत पूर्ण करो
फिर मरने बाद कहाँ कौन मिले।
