शोषण की आवाज
शोषण की आवाज
वो मांग ही क्या रहे हैं तुमसे
अपने हिस्से की जमीं?
आखिर तुमने अब तक
उन्हें दिया ही क्या है,
भूख लाचारी बेबसी
आंखों में आंसू बस.........।
और उस पर सदियों से
तुमने उन्हें
जोता है हल पर
कोल्हू के बैल कि तरह,
निचोडें हैं
उनके अंग अंग
अपने खूनी पंजों से,
उनकी सूखी
झुर्रिदार खाले
जो लटक रही हैं
उनके ही कांधों पर बेहिसाब
सदियों का बोझ लिए,
तुमने वो भी चाब डाले हैं
अपने "अहम" के दांतों से,
बस छोड़ दी है
कुछ बूंदे
खून की उनके जिस्म में,
जिसमे वो
रेंगते रहे हजारों साल
तुम्हारी गुलामी मे,
उनके माथे से
टपकता पसीना,
जब मिट्टी में मिल जाता है
तो धरती रोती है
दर्द सहती मगर
आत्मा
उसकी रिसती है लगातार,
उस पर भी
तुम छीन लेते हो
बचा खुचा उनसे,
छोड़ देते हो
उन्हें जीर्ण शीर्ण.......
मरी आवाजें
शोर नहीं मचाती है
बस सुबकती हैं
हार कर।
