श्मशान सी शिक्षा व्यवस्था
श्मशान सी शिक्षा व्यवस्था
आतताइयों से भरी हुई व्यवस्था
नाम शिक्षा का लेती है
मगर अविद्या का बोझ धरती है।
न जाने क्यों हमारी व्यवस्था अनुशासनहीन
दिखाई पड़ती है ?
कभी तो लगता है :
सुनहरे भविष्य को साकार करने का माध्यम बनती है
और कभी तो लगता है:
श्मशान का बोझ ढाती है।
असमानता की कुरीति से खुद को ढँक के रखती है
जाने कैसी ये व्यवस्था है जो अंधकार से
अंधकार की ओर धकेलती है ?
कहा जाता है, ज्ञान बांटने से बड़ा धर्म कोई नहीं,
मगर इस व्यवस्था में तो ज्ञान की बोली लगती है।
सबकी अस्मिताएं बिकी हुई सी जान पड़ती है
न जाने ये कैसी व्यवस्था है जो अंधकार से
अंधकार में धकेलती है ?
संघर्ष से परहेज कर जहाँ मूल्यों को भुला दिया जाए,
शरीर से आत्मा को अलग कर जहाँ ज्ञान की विवेचना की जाए
वो कैसी शिक्षा व्यवस्था जहाँ ईमान की बोली लगाई जाती है ?
ठहरते क्यों नहीं ये अमानवीय ज्ञानी
जो अंधकार को ज्ञान समझते हैं
और नींव श्मशान की ईंटों की बनाते हैं ?
समस्या ये है कि हम अर्ध पतन की ओर अग्रसर है
और कुछ ही पल में हम सब छिन्न-छिन्न हो जायेंगे।
थोड़े से और निर्लज्ज होकर, पैसों की पिपासा मिटायेंगे
और अर्धसत्य को पूर्णसत्य मान उसी अर्धसत्य को बेचेंगे।
ये ही तो है शिक्षा व्यवस्था!
इसमें आश्चर्य कैसा ? होता ही आया है ये सबके सामने,
हम अपनाते भी रहे क्योंकि हम अभिमन्यु की तरह
चक्रव्यूह में फंसना चाहते थे,
तभी तो मैंने कहा कि ये व्यवस्था श्मशान के समान है।