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शहर में आज फिर

शहर में आज फिर

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शहर में आज फिर कोई पंगा हो चला है

हिन्दू-मुस्लिम का शायद दंगा हो चला है।


बहा रहा है लहू आज फिर भाई-भाई का

यह देख कर दुश्मन फिर चंगा हो चला है।


भूल बैठे लाज आज फिर राष्टृध्वज की 

दुश्मनी का वस्त्र उनका अंग हो चला है।


हो गए हैं उतारू आज फिर पीने को लहू 

यही उनका जम-जम औ गंगा हो चला है।


चढ़ रही है इंसानियत की चौराहे पर बली

मानवता को उतार समाज नंगा हो चला है।


होकर भी स्वतंत्र हम स्वतंत्र नहीं हुए अभी

कि परतंत्र आज फिर से तिरंगा हो चला है।     


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