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Shashi Singh

Tragedy

4  

Shashi Singh

Tragedy

मृत्यु और भूख

मृत्यु और भूख

3 mins
735


लोग लिख रहे हैं भूख पर और

असमय काल के मुँह में समाती ज़िन्दगियों पर

जो कल तक खिलखिलाती थी,उड़ान भरती थी

और अपने सुंदर आगत के स्वप्न बुनती थी। 

जो जीवन की ओर नन्हे कदम बढ़ा रहे थे,

वो नवपल्लवित, उनकी भी क्या गलती थी।

बहुत पहले पढा था "योग्यतम की अतिजीविता"

जो संघर्ष में खुद को मजबूत बनाये रख पायेगा

वही जीवन का अधिकार पायेगा।

पर इस जीवन संघर्ष में 

क्या योग्य क्या अयोग्य

क्या कमजोर क्या बलवान

क्या निर्धन क्या धनवान

सब एक एक कर इस ब्लैक होल में समा रहे हैं।

हां सम्वेदनाएँ अभी तक सांस ले रही हैं।

सब लिख रहे हैं मृत्यु पर...,भूख पर...

पर मैं नही लिख पा रही कुछ भी

इतना आसान नही है लिखना भूख पर।

अहसास करना होता है जीना होता है इस स्थिति को।

मैंने भी शायद जिया हो कभी भूख को 

एक उम्मीद के साथ....

बस कुछ पल के लिए।

पर एक अनिश्चितता एक नाउम्मीदी के साथ 

इसे जीना बहुत मुश्किल है।

एक पिता या माँ के लिए

 लगातार चलते रहने की थकान से मुरझाई कोमल देह 

और होठों पर भूख और प्यास से जम आयी पपड़ी

 देखना और भी ज्यादा मुश्किल है।

इस पर लिखना इतना आसान है क्या?

मृत्यु पर लिखना तो और भी ज्यादा असहनीय है मेरे लिए।

कितना व्यथित करती होगी 

एक माँ को सात समंदर पार मृत्यु के बीच फँसे 

एकलौते बेटे को बचा न पाने की बेबसी।

जीवन भर की टीस दे जाती होगी

एक पत्नी,एक पुत्री ,पुत्र को 

पिता का अंतिम संस्कार न कर पाने की बंदिश।

रोजाना कर्तव्यों के लिए जीवन दाँव पर लगाते 

किसी कर्मयोगी के परिवार की कसक।

क्या इतना आसान है लिखना इस पर...

बिना भोगे उस कष्ट को तो बिल्कुल भी नही।

मैं संवेदनहीन हो सकती हूँ....पलायनवादी भी...

दुःखों से भागने की आदत है मेरी।

शायद नहीं बर्दाश्त कर पाती ये सब।

अब लोग मुझे स्वार्थी कहें या आत्मकेंद्रित

पर मैं लगातार भागती हूँ दुःखद परिस्थितियों से...

उस शुतुरमुर्ग की तरह 

जो धरती में मुँह छिपाकर समझ लेता है...

कि वो अब संकट से दूर है।

कैसे लिखा जाए उन विकट परिस्थितियों के बारे में...

जिसकी न ही दिशा का आभास है न ही दशा का।

क्या ये ब्लैकहोल है जो सब कुछ निगल जाएगा?

या इसके पीछे रोशनी का एक अथाह सागर भी है?

इन सवालों का जवाब समय के गर्त में जो छुपा है।

इतना आसान थोड़ी है इस पर लिखना।

मेरे लिए तो बिलकुल भी नही...

हाँ... मैं हूँ सम्वेदनहीन...पलायनवादी भी...भीरू भी।

और जब भी ऐसे हालातों से दो चार होती हूँ

खुद को खो जाने देती हूँ 

प्रेम और उम्मीद से भरी रेखाओं ...रंगों ...और शब्दों में।

जी भर निहारती हूँ भोर और अस्तांचल के सूरज को।

आंखों में उतारती हूँ शीतलता से भरी रातों को ....

लगातार सफर करते अनगिन तारों और चाँद और

कुछ टूटते गिरते तारों और उल्कापिंडों के साथ।

बिखर जाने देती हूँ खुद को उन गमलों में 

जहाँ हैं कुछ सूखे मुरझाए पत्तों और टहनियों के साथ

लहराते फूलों और पत्तों से हरेभरे पौधे...

और कुछ नई आती कोपलें भी।

ये सब मुझे बखूबी थाम लेते हैं...

और टूटने से बचा लेते हैं मेरा हौसला।

और मैं फिर से भर उठती हूँ

 एक उम्मीद के साथ...

एक नई रोशनी की आस के साथ...

हाँ मैं संवेदनहीन हूँ....पलायनवादी भी...

क्योंकि लिखना आसान नही है मृत्यु और भूख पर।

मेरे लिए तो बिल्कुल भी नही।



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