आजकल मैं(कविता)
आजकल मैं(कविता)
आजकल मैं फिर से मुस्कुराना सीख रही हूँ।
तन्हाइयों में खुद को गुनगुनाना सीख रही हूँ।
जो खुशियाँ कभी कतरा कर निकल जाती थीं करीब से
अब उनको अपने दामन में छुपाना सीख रही हूँ।
तितलियों पर सवार हो के जो उड़ जाते थे फुर्र से
उन रंगों को जिन्दगी में सजाना सीख रही हूँ।
जो जज्बात गुजर गये दिल पर दस्तक दिये बगैर
उन्हें फिर से दिल के आँगन में बुलाना सीख रही हूँ।
जो लम्हे निगल रहे थे मुझको न जाने कब से
उन लम्हों में ही खुद को बचाना सीख रही हूँ।
भर भर के झोलियाँ बाँटती रही तमाम उम्र
अपने लिये भी कुछ उनमें से चुराना सीख रही हूँ।
मुठ्ठी से सरक रही थी रेत की मानिन्द जिन्दगी
अब फिर से जिन्दगी से भर जाना सीख रही हूँ।
