तुम मेरे बसंत
तुम मेरे बसंत
सुनो
मैंने तुम्हारे लिये सारे बन्ध खोल रखे थे
तुम आओगे तो बसन्त भी आयेगा।
गमक जायेगी देह सरसों के फूलों जैसी
नहीं तो फिर यह बरस यूँ ही गुजर जायेगा।
ठूँठ सा कर दिया था मुझे बेरहम पतझड़ ने
पर उम्मीद दे गया था फिर से सँवर जाने का।
अहसासों को चुन चुन संजो लेने का
नव प्रभात में नव गात में निखर आने का।
मैं बावरी सी लज्जा त्याग... आवरण उतार सारे
प्रेम दीप बाल कर, नयनों के द्वार धारे।
रतिरूप तेरे सम्मुख अवतरण चाहती थी।
श्वासों का मिलन, हृदय का वरण चाहती थी।
प्रारब्ध से अन्त तक ..अन्त से अनन्त तक।
पर तुम ना आये और ना ही तुम्हारी आहट
पलाश गुलमोहर सेमल भी अब जोह रहे बाट।
आओ ना।
छू जाओ पलाश गुलमोहर सरसों को अधरों से
ना रोको बसन्त को। सरसों की गन्ध को।
मुझे भी गमक जाने दो। प्रेमरस बरस जाने दो।
सुनो
मैंने तुम्हारे लिये सारे बन्ध खोल रखे हैं।
तुम आओगे तो बसन्त भी आयेगा।