मैं कोई संत तो नहीं
मैं कोई संत तो नहीं
"मैं कोई संत तो नहीं"
"मैं स्त्री हूँ कुछ मांगे मेरे अस्तित्व को शोभा नहीं देती"
हर स्त्री के भीतर मूर्छित पड़े एहसासों का इकरारनामा लिख रही हूँ,
एक सच्चाई जिसे कोई स्त्री मुखर होते कहने का, दर्शाने का या लिखने का साहस नहीं करती..
शायद स्त्री और पुरुष के स्पंदन विभिन्न पदार्थों से बनें होंगे तभी तो,
तुम अपनी कामेच्छा को सहजता से प्रस्फुटित करते हो,
मैं झुकी पलकें और बंद लबों के पीछे दावाग्नि सी कामोत्कंठा को दबाए रखती हूँ...
जब तुम्हें मेरी जरूरत होती है, तुम मेरे तन की कामना कर सकते हो, मुझे मुझसे मांग सकते हो,
अपनी इच्छा ज़ाहिर करते तन की प्यास खुले मन से मेरे सामने रखते मुझे छू सकते हो,
मेरे हर अंग की तारीफ़ करते मुझे सरे-राह नखशिख पी सकते हो
मैं नहीं छेड़ सकती बीच बाज़ार तुम्हें..
अगर मैं खुशी-खुशी तुम्हें ना मिलूँ तो प्रेम से पिघलाते, झूठा इश्क जताते, जबरदस्ती से या बलात्कार से हासिल कर सकते हो..
"तुम मर्द हो"
पागलपन की हद तक मुझे चाह सकते हो, शारीरिक जरूरतों से जुड़ी हर क्रियाओं का कामदेव बनकर मुखर होते आनंद उठा सकते हो..
तो क्या हुआ की मैं स्त्री हूँ
मैं कोई संत तो नहीं, नारी तन के भीतर भी लहलहाती वासना तो बेशक पनपती है, उन्माद तो मेरे अंदर भी उठता है, तुम्हारे सुगठित शरीर को पाने के लिए कभी-कभी शिद्दत से मन मेरा भी मचलता है,
वहशीपन शायद मुझमें भी बैठा है... एहसास जगते है जब शारीरिक जरूरतों के चलते खून मेरा भी गर्म होता है,
पर धुंधुआते छप्पर की तरह खून में उबलते कामाग्नि पर मैं धैर्य का शीत नीर उडेलते वापस मोड़ लेती हूँ अपनी इच्छाओं को,
क्यूँकि मैं स्त्री हूँ...
कोई शीत झील नहीं, तड़प का एक ज्वालामुखी सा समुन्दर मेरे भीतर भी बहता है,
मैं भी चाहती हूँ मुखर होते मेरी जरूरतों को तुम्हारे सामने रखना पर,
वासना के क्षणिक आवेग को खून में भरकर टूट पड़ना मेरी गरिमा के ख़िलाफ़ है, सोचो बलात्कारी स्त्री की बातें कहीं पढ़ी, सुनी या देखी है भला?
"मयूर पंख सी मुलायम कामेच्छा दांतों तले दबा लेती हूँ"
सारी रवायतों में एक ये भी मेरे हिस्से आई है अपने निज़ी एहसासों को छुपाकर रखूँ,
तभी तो रातों की बातें मैं रात में ही दफ़न करते सहम जाती हूँ एक झिझक के साथ, नहीं बन सकती रति अपने स्पंदनों को परोसते,
या तो मेरे मांस में वो जादूगरी नहीं, या संस्कृति का ख़ौफ़ है, स्त्री की छवि को धूमिल करने की हिम्मत नहीं या देवी का दर्जा दहलीज़ लांघने से रोकता है...
तभी तो उन्माद के उठने पर खुद अपने पति से भी अपना शारीरिक हक मांगने से झिझकती हूँ..
बाकी झूठ नहीं बोलूँगी जो जरूरतें तुम्हारे तन को जलाती है वह मेरे देह के भीतर भी तिलमिलाती है,
पर सुना है अपनी जरूरतें मर्दों के सामने रखने वाली औरतों को गिरी हुई समझा जाता है,
कहो कैसे कहूँ ए मर्द मुझे तेरी जरूरत है, डरती हूँ प्रस्ताव रखते ही कहीं 'वो' करार न दी जाऊँ
तभी तो कुछ गरिमामयी वामाएं अपने एहसासों का खून करके भीतर ही दफ़ना देती है, मर्दों के सामने अपनी भावनाओं का भोग लगाने से डरती है,
स्त्री है न शोभा नहीं देता,
पर ये सोचकर मन मना लेती हूँ कि इसी में स्त्री की भलाई है,
खुद को डरते, शर्माते अपने ही भीतर छुपाने के बाद भी खिंच निकालते है कुछ दरिंदे अपनी वहशियाना हरकत से,
स्त्री अगर एहसास जताते मुखर हुई तो ज़लज़ले आएंगे हर मौके पर दरिंदे हाथ मारने से नहीं चूकेंगे।