हर काल की स्त्री की व्यथा
हर काल की स्त्री की व्यथा
प्राचीन स्त्री का आधुनिक स्त्री से सवाल -
भभकती हुई चूल्हे की अग्नि के समक्ष,
मुख पर डालकर घूंघट, कभी कार्य किया है?
बताओ आज की स्त्री,
क्या तुमने कभी ऐसे नरक को जिया है?
भोर होते ही, सुबह-सवेरे सबसे पहले जगकर,
ताजा-ताजा मसाला अपने हाथों से सिलबट्टे पर पीस कर,
किया सबके लिए स्वादिष्ट भोजन तैयार,
अपनी क्षुधा मिटाने को करना पड़ता अंत तक इंतजार,
फिर भी नसीब में अपर्याप्त भोजन ही मिला है।
बताओ आज की स्त्री,
क्या तुमने कभी ऐसे नरक को जिया है?
पास में ना था सेहत का कोई खजाना,
दोपहरी में होता था गेहूँ बीनने छत पर जाना,
डालकर जान जोखिम में अपनी
एक पूत जनने की खातिर,
जाने कितने बच्चों को पैदा किया है।
बताओ आज की स्त्री,
क्या तुमने कभी ऐसे नरक को जिया है?
कभी निकलकर देखा है तुमने
दैनिक कार्य हेतु घर से बाहर,
जंगली जानवरों का डर संग छोटे बच्चों की पुकार,
क्या ऐसा अभावों भरा जीवन तुमने जिया है?
बताओ आज की स्त्री,
क्या तुमने कभी ऐसे नरक को जिया है?
हुआ जो गलत कुछ भी संग हमारे,
अपना कहलाने वालों ने ही
असल में हमें प्रताड़ित किया है,
कभी हार बैठे जुए में हमको तो कभी
ज़मीन का मूल एवं ब्याज
हमारे रूप में ही तो चुकता किया है।
बताओ आज की स्त्री,
क्या तुमने कभी ऐसे नरक को जिया है?
आधुनिक स्त्री का प्राचीन स्त्री को जवाब -
माना अभावों में जीना नहीं आया हिस्से हमारे,
परन्तु इन अभावों को मिटाने की खातिर हमने
घर से बाहर पैर रख, मर्दों की दुनिया में
स्वयं का अस्तित्व ढूँढ़ने का प्रयास किया है।
हाँ, हमने भी जाने कितने ही नरकों को जिया है।
कदम-कदम पर दहकते अंगारों सी आँखें,
नोच खाने को तैयार नुकीली तीर सी घातें ,
निशा को बाहर जाने में खतरा,
हर कदम ऐसे अनगिनत लोगों का प्रतिकार किया है।
हाँ, हमने भी जाने कितने ही नरकों को जिया है।
सुख-सुविधाओं के नाम पर
इंसान को मशीनी युग प्रदान किया है,
समय पर खाना नहीं, सेहत का खजाना नहीं
बाहर का काम करने पर भी
घर संभालने का उतर दायित्व भी हमको ही मिला है,
हमें एक नहीं दो-दो जगहों का कार्यभार दिया है।
हाँ, हमने भी जाने कितने ही नरकों को जिया है।
तड़के-तड़के जगकर हमने
सर्वप्रथम भोजन तैयार किया है,
उसके पश्चात बाहरी दाव-पेंच के लिए
स्वयं को तैयार किया है,
सांझ ढलने पर घरवालों ने हमारा इंतजार किया है,
निशा के भोजन की तैयारी में भी
किसी ने साथ ना दिया है।
हाँ, हमने भी जाने कितने ही नरकों को जिया है।
तुम तो रहती थी घूँघट में, फिर भी तुमको ना बख्शा
हमको तो हमारे पहनावे का जिम्मेदार किया है,
क्या बच्ची, क्या महिला, क्या प्रौढ़
इस नर-भक्षी समाज ने देकर लक्ष्मी स्वरूपा का दर्जा
हर कदम, हर जन्म सिर्फ और सिर्फ
औरत को ही गलत साबित किया है,
रौंद कर अपने कदमों तले,
महान् बनने का बस ढोंग मात्र किया है।
हाँ, हमने भी जाने कितने ही नरकों को जिया है।
सच यही है कि, हमने और तुमने मिलकर
जाने कितने ही नरकों को जिया है।
जाने कितने ही नरकों को जिया है।।
