पौराणिक कथा (उर्मिला विरह)
पौराणिक कथा (उर्मिला विरह)
तुम मुझे विरह की बात बताते
मैं स्वयं विरह की प्रतिमूर्ति
जाने क्या हुआ मुझसे अपराध
स्वामी नही है मेरे साथ
अभी तो मिलन की हुई शुरुआत
अभी तो थामा था स्वामी ने हाथ
बहुत कुछ था मन में अरमानो का साथ
अभी कहाँ जाने थे एक दूसरे के जज्बात
हम नही केवल नयनो से हुई थी बात
दोनों के हृदयों ने सुनी थी बात
अभी सजना संवरना बाकी थी
रूठना मनाना भी बाकी था
मेहंदी का रंग अभी .तो गहरा था
शर्म से लाल हुआ चेहरा था
अभी कहां जान पायी थी प्रियतम को
उनके तप, नियम और सयंम को
न जाना था कैसा है उनका व्यवहार
क्या है उनके मन मे मेरे लिए विचार
जानना था बहुत कुछ स्वामी को
वो गुण जो भाए स्वामी को
किन्तु हाय री किस्मत ये हुआ क्या
आखिर चुप क्यों है विधाता
क्यों मिला मुझे चौदह वर्षो का वनवास
कहने को तो मिला श्री राम को वनवास
किन्तु मेरे लिए कठिन है ये वनवास
मैं न रोकूंगी स्वामी को अपने कर्म से
अपने बड़े भाई की सेवा के धर्म से
मेरे लिए यह समय कठिन होगा
नित नयनो से अश्रु झरना बहेगा
हाय ! मैं क्यों नही गयी साथ उनके
मैं भी रह लेती साथ वन में उनके
किन्तु उनके कर्म में विघ्न पड़ता
उनकी पीड़ा का दोष मुझको लगता
किसी तरह अपने मन को समझाया है
बस उनकी यादों से मन को बहलाया है
ऐ सुन ले ओ चंदा प्यारे
मत जलाना तुम जी को हमारे
जब तक मेरे स्वामी आ न जाए
तब तक नभ में अपनी चाँदनी न बिखराये
तेरी चांदनी मुझे चिढाती है
हर पल मुझे स्वामी की याद दिलाती है
तू मौन रहकर देखती है ये सब खेल
तेरा और चांदनी का भी होता नहीं मेल
वचन है तुझे अपनी चाँदनी की
न याद दिला मुझे मेरे स्वामी की
ये मेघ जाने क्यूं बरसते है
जाने क्यों मन में आग लगाते हैं
अब तो चौदह वर्षो तक बरसात होगी
मेघो से नही मेरे नयनो से होगी
ये हवा भी मेरे मन को जलाती है
बार बार मुझे उनकी याद दिलाती हैं
ऐ हवा बस इतना सा काम कर दे
मेरे स्वामी को मेरा संदेश दे दे
बस तू उनके चरणों को छू कर आना
मार्ग में तुम किसी और को न छूना
उनके चरणों की रज को मैं
अपने माथे से लगा लुंगी
और इसी में संतोष कर लूँगी
कि स्वामी मेरे साथ है
किन्तु ये मेघ जो बरसते हैं
मन प्रिय से मिलने को तरसते हैं
क्यूं विधाता इतना निष्ठुर है
क्यूं विरह को मेरे आतुर है
न जाने कब उनका साथ होगा
कब मन में खुशियो का उन्माद होगा
ये अमर बेल भी मुझे चिढाती है
अपने मिलन पर कितना इतराती है
कभी तो अपना भी मिलन होगा
वो दिवस कितना शुभ होगा
जब प्रियतम मेरे साथ होंगे
ऐसा नही है पिया नही आएंगे
मुझे छोड़कर और कही जाएंगे
किन्तु ये अवधि ज्यादा लंबी है
मुझे उनके दर्शनो की जल्दी है
ए निद्रा बस इतना सा काम कर जा
चौदह वर्षो तक मेरी आँखों मे बस जा
मेरे स्वामी कर्म को करते रहे निर्विघ्न
उनके नयनो में नींद न आये एक भी क्षण
जब लौटकर आये वो वनवास से
मुझे वी ही जगाये हाथो के अपने स्पर्श से
कुछ इस तरह से अपना मिलन होगा
बस नयनो से नयनो का संवाद होगा
हाय वो पल कितना स्वर्णिम होगा
जब उनका वनवास सम्पूर्ण होगा
तब तक विरह की आग में जलना होगा
तप संयम के पथ पर चलना होगा
किन्तु इस विरह का अंत भी सुखद होगा
युगों युगों तक उर्मिला विरह का नाम होगा।