शहर का तज़ुर्बा
शहर का तज़ुर्बा
इस शहर ने मुझे क्या क्या सिखाया है,
मैं जब जब भी गिरा ये मुस्कुराया है,
कभी छत ढूंढता था सिर ढकने को छोटी सी,
अब तो फुरसत नहीं रुकने की, कैसा काम आया है।
नए रास्तों से डरकर निकलता था कभी,
रोशनी कर चेहरों से इंसान पहचानता था सभी,
आज रास्ते पैरों से और इंसान कीमत से पहचानता हूं
बहुत देर में, वक़्त गुजरते ऐसा मुकाम आया है।
मुझे दर्द होता था गांव में कोई भी बीमार हो,
सहने का तजुर्बा न था किसी पर वक़्त की मार हो,
अब अर्थी भी पास से गुजरे तो फोन रखता नहीं,
इस शहर ने शहरी होने का ऐसा नशा सुंघाया है।
इस्तेमाल करो सबको या हो जाओ,
जब तक काम न निकले,मंडराओ,
मक्खी से फेंके जाओगे, वरना काम के बने रहो,
बस इसलिए ही पुर्जा पुर्जा काम में लगाया है।
जो दिखता है वो बिकता है,तजुर्बा किया मैंने,
कंधे पर चढ़कर और ऊंचा होने दिया मैंने,
चढ़ने वाले ने जब मेरे सिर पर ठीकरा फोड़ दिया,
तब पहली बार किसी साथी को औंधे मुँह गिराया है।
पैसा पावर और पागलपन अहम का,
कैसा नशा है, अपना मजा है वहम का,
रास आने लगा, शहर सिनेमा सा चल रहा आंखों में,
मैंने वो सब देखा है जो जो इसने मुझे दिखाया है।
अब शहर से कोई गिला नहीं,
कि मैं जब भी गिरा ये मुस्कुराया है।
शहर के एहसान गांव से ज्यादा है इसलिए ,
लड़ जाता हूं किसी ने भी मुझे देहाती बताया है।
