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VIJAY LAXMI

Abstract Others

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VIJAY LAXMI

Abstract Others

शब्दों की अस्थियां

शब्दों की अस्थियां

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हमने कलम क्या उठाई एक ग़ज़ल बन गई

शब्दों को पिरोया ही था लोगों की उंगलियां चल गई।।


मैं लिए बैठी रही अपने अरमानों की आस्थाएं

जंग जारी भी रही और खत्म भी हो गई


शब्दों का आवरण तोड़ना चाहा पर लोग चल दिए

करना तो कुछ नया चाहा पर भीड़ में मैं सोचती रह गई।।


बुद्धि तो बहुत दी थी खुदा ने शब्दों को उभारने के लिए

औरों को नकल करते देख मेरे शब्दों की तो अस्थियां निकल गई।।


विजय लक्ष्मी पुरातनपंथी के भंवर में फंसती रह गई

दुनिया तकनीकी के युग में नकल कर आगे निकल गई।।


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