ढाई अक्षर का प्रेम
ढाई अक्षर का प्रेम
ढाई अक्षर से शुरु हुआ प्रेम का आलाप
करते हैं सभी पर हो जाते हैं खिलाफ
'प, से प्रेम करो मां के पवित्र आंचल सा
बिना स्वार्थ के मिलता है धूप की तपन सा
इस प्रेम को भूल न जाना ए - मानव
भरी दुपहरियों में भी मां ने किया नहीं विलाप
ढाई अक्षर से शुरु हुआ प्रेम का आलाप
करते हैं सभी पर हो जाते हैं खिलाफ।।
'या, से यारी हुई दीपक और ज्योति संग
प्रेम से रिश्ता निभाने का करते हैं प्रण
दोनों के मिलन से महक उठी फुलवारी
मां की आंखों से खुशियों का बहता है सैलाब
ढाई अक्षर से शुरु हुआ प्रेम का आलाप
करते हैं सभी पर हो जाते हैं खिलाफ।।
'र, से रिश्ते बन जाते है उठाने को जिम्मेदारी
दीये, प्रदीप संग घर आंगन में महकाई फुलवारी
मां पल्लू से पोंछती थी पसीना पसरती थी धूप
पहला प्यार मां का है, निस्वार्थ, गुनगुनाती सी धूप
ढाई अक्षर प्रेम से शुरू हुआ प्रेम का आलाप
करते हैं सभी पर हो जाते हैं खिलाफ।।
विजयलक्ष्मी, कहती हैं भूलो न संस्कृति, संस्कार
मां के पल्लू में गंगा, यमुना बहती है निराधार
बड़ों की छत्रछाया में जलते हैं दीपक, ज्योति
मातृत्व की डोर से घर कोने में फैलाती प्रदीप
ढाई अक्षर प्रेम से शुरू हुआ प्रेम का आलाप
करते हैं सभी पर हो जाते हैं खिलाफ।।
